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"ध्रुव तपस्या / मुकुटधर पांडेय" के अवतरणों में अंतर

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18:23, 16 जून 2015 के समय का अवतरण

बंधु, तुम रहते हो किस हेतु, व्यर्थ यों चिंता में केवल?
दैव जो करता उससे क्या न, भला ही होता है सब काल?
विटप पर कहाँ कुठाराघात, कहाँ नव किशलय मृदुल महान
अग्नि में कहाँ अगर का दाह, चतुर्दिक कहाँ सुगंध विधान

विषम विष बुझी अनल सम कहाँ, विमाता की वह तीखी बात
मोह तम दलन प्रभामय अतुल, कहो धु्रव जीवन का सुप्रभात
पड़े गिरि-शृंग भले ही टूट, भले नभ से हो बज्र निपात
इन्हें सह सकता मानी हृदय, नहीं पर कभी बचन आघात
हिंस्र-पशु संकुल-कानन बीच, भले ही दे वह अपने प्राण
मान हत हो मांगेगा नहीं, पिता से भी पर आश्रय दान
परीक्षा ली मुनिवर ने खूब, हुआ धु्रव पूरा उसमें पास
कहा, ‘‘तज गर्वित उर की आश, बनूँ क्यों नहीं ईश का दास

पितृग्रह का अब वैभव भोग गड़ेगा, मुझको बनकर शूल
दुग्ध-धृत से भी होगा मधुर, मुझे हे! हे मुने! वन्य-फल-मूल
क्या हुआ कर मेरा अपमान, दिया जो मुझे पिता ने त्याग
न तो क्या परम पिता भी कभी, दिखलाएगा मुझ पर अनुराग

विपिन मंे मुझको अनुचर वृन्द, झुकायेंगे न भले निज माथ
हरिण तो होंगे मेरा सखा, विहग तो देंगे मेरे साथ
चलूँ अब मैं उसके ही पास, रहूँ क्यों बनकर इतना दीन
आत्म सम्मान और अभिमान उसी के चरणों में हो लीन

भक्ति दृढ़ उसकी लख हो मुदित, दिया मुनि उसको उपदेश
वत्स हो पूरा तब मन काम, चला तू जा यमुना-तट-देश
खड़े थे विटप और दु्रम-पुंज, विचित्र सुमन अनेक
किया धु्रव ने हो स्थित आरंभ, वहीं अपना नीर व अभिषेक

अभी करता था कल जो समुद्र, स्नेहमय जननी का स्तन पान
अहो! आश्चर्य लखो यह आज, उसी की आराधना महान
न भोजन-असन की चाह, नहीं वर्षा हिम का है ध्यान
हुआ है उसे ज्येष्ठ का तपन, चन्द्र की शीतल किरण समान

जिन्हें कर सुरभित तैलासिक्त, सजाती जननी चूनर-फूल
जटिल है हुए कुटिल ये केश, आज उड़ती है उनमें धूल
भक्ति पूरित इसका हृदय, बह रहा जिसमें प्रेम प्रवाह
राग रन्जित है वह तो, उसे विनश्वर तक की क्या परवाह

देखकर उसका साधन कठिन, अन्त में प्रकट हुए भगवान
चतुर्भुज श्यामल भूषित माल, चक्रधर-पिताम्बर-परिधान
वत्स! वर माँग देख तब भक्ति, तुष्ट मैं तुझ पर आज महान
श्रवण कर बोला धु्रव कर जोड़, प्रेम विह्वल हो गदगद प्राण

भक्त-वत्सल हे करुणा धाम, अतिहर जगदाधार अनन्य
तुम्हारे दर्शन पाकर आज, हुआ है जीवन मेरा धन्य
शरण अशरण के तुम ही प्रभु, अनाथों के तुम्हीं हो नाथ
न कोई जिसका जग में बंधु, तुम्हीं बस धरते उनका हाथ

न योगी भी पाते तब भेद, ‘नेति’ कह श्रुतियाँ होती मौन
करूँ फिर कैसे तब गुणगान, क्षुद्र मैं गणना मेरा कौन?
माँगना होगा तुमसे मुझे, तुम्हीं तो हो प्राणों के प्राण
बिना बोले ही देखें आज, हृदय को लो तुम मेरे जान

देख कर दिव्य तुम्हारा रूप, हो रही वाणी मूक महान
कहो, बरसा आँखों से नीर, करा दूँ तुमको पूरा स्नान
किया जिसने पंकज रस-पान, फिरे वह अलि क्या कुरवक ओर
चाह है बस ही श्री मुख चन्द्र, नयन से मेरे मुग्ध चकोर

भक्तिमय सुन उसके ये बचन, परम ही मुदित हुए घनश्याम
दिया अति आग्रह पूर्वक उसे, पिता का राज्य और धन-धाम
करो तुम राज्य यहाँ बहुकाल, मिलेगा अस्त तुम्हें धु्रवलोक
जहाँ विमल शांति सुख भोग, नहीं रूज व्याधि और दुःख शोक

सुरों ने गाकर मधुमय गीत, बड़ाई की धु्रव की बहु बार
व्योम में बजे मनोहर वाद्य, सुमन की वर्षा हुई अपार
दयामय दीन बन्धु भगवान! सुनो, होता जिस पर अनुकूल
कृपा करते उस पर सब लोग, उसे कण्टक भी होता फूल

मिटाकर धु्रव का जिसने खेद, कर दिया सुखी उसे भरपूर
करे वह करुणा सिन्धु दयाल, हमारे पाप-ताप-दुःख दूर।