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रूढ़ियों के अन्धकार
सतरंगी सपने बन
विश्वास की सीढ़ियों पर
पग धरते
घर करते गये हमारे अन्तस में धीरे-धीरे
आस्थाओं के प्रतिमान मान
अन्धविश्वास की इन भटकनों को
भोर की उजास जान
हम भरते रहे डग—
शोषण की अन्तहीन खाइयों में
दोहरे मानदंडों के
सख़्त हो चुके इन दरख़्तों को
हमारे ज्ञान के झकोरों ने
झकझोरा है, हिलाया-डुलाया है
इन बीज-वृक्षों की पनपती बेल को
अन्तस की रौशनी में
जितना भी बन पड़ा हमने धक्का लगाया है
षड्यन्त्रों के कँटीले-ज़हरीले ये झाड़-झंखाड़
प्रवेश करते रहे हमारी स्मृतियों में
सदियों तक
कुन्द करते रहे हमारी कल्पनाओं को
इन्होंने हमारी संवेदनाओं को
भोथरा बनाया है!