भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"फिरौती / पारसनाथ" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पारसनाथ |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatDalitRachn...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

12:47, 4 जुलाई 2015 के समय का अवतरण

मृग-तृष्णा की तरह
हकला गयी है
आम मनःस्थितियों को
तड़पा गयी है
बहुत सारी ज़िन्दगियों को
अवरोधों का विस्तार
दिखा गयी है / अपने करिश्मे
सहमे, डरे जन-जन को
भीगे आँसुओं में
दुबके हुए देखकर
अपहरण करने की उनकी
निखालिस आदतें
बदतमीज़ी पार कर गयी हैं
गोली, बन्दूक़ों की नोक पर
ज़ुल्म ढा गयी हैं
महत्वाकांक्षा की सारी सीमाएँ
बेतरतीब मर्यादा की लकीरें
लाँघ गयी हैं
खींचते-भींचते
मानवीय-सभ्यता को
तेज़ाब में डुबोकर खा गयी हैं।

आज की व्यवस्था
आज का प्रशासन
कीचड़ में तलाशने लगा है
अपनी आस्था से जुड़े
अहम मुद्दों को
जिनकी मानक राख
उछाली गयी है
निस्सीम आकाश की ओर
फिरौती का नायाब नमूना
नये-नये करिश्मों में
चिपके लगे हैं
उनकी अनगिनत क़तारें।
प्रशासन पंगु हो गया है
निकम्मे हो गये हैं अधिकारी
तलाश, तहक़ीक़ात में
दिखा रहे हैं कलाबाजियाँ
नक़ली मुठभेड़ में तनकर।
रोज़-रोज़
तमग़ा पाने की फ़िराक़ में
बेक़सूर लोगों का लहू बहा रहे हैं
बचाव से ज़्यादा संकल्प
दोहरा रहे हैं।

अपहरण, फिरौतियाँ जारी हैं
नाकाम हुआ है प्रशासन
लग गये हैं अनगिनत
प्रश्न-चिह्न / राष्ट्रीय सम्मान पर
युगान्तकारी बदलाव के
आयाम खुले हैं
अमन-शान्ति के
बहुत-सारे / सपने सँजोए।

अपहरण और
फिरौतियों का संसार
कोई मृग-तृष्णा है? नहीं—
हक़ीक़त है
बदचलनी, बेदर्दी का—
है एक अनुपम तोहफ़ा
जिन्हें झुठला रही है
आज की व्यवस्था
आज की मनःस्थितियाँ
और लोग लगे हैं
दिखे हैं / चिनगे हुए!!