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(कवि मानबहादुर सिंह की नृषंस हत्या पर)
कवि को मारना बहुत आसान है
पहले गंडासे से करो वार
उसकी एक भुजा काटो...
फिर दूसरी
फिर गर्दन उड़ा दो....
और आखिर में सीने में गोली....
ताकि कहीं कोई संभावना बाकी न रह जाए जिंदगी की।
कवि को मारना सबसे आसान है।
वह दो हजार लोगों के बीच भी हो
तो क्या परवाह।
वे दो हजार तो टट्टू है....नामर्द...
माटी के खिलौने।
वे दो हजार जिन्हें जिंदगी का बुनियादी पाठ
पढ़ाने में उसने अपने जिंदगी लगा दी
... कि जिन्हें बाज दफा उसके साथ चलते,
बोलते, मुसकराते....
उसकी कविता की सतरों पर एक साथ
चंचल जल-मुर्गाबियों
की तरह
बहते देखा गया।
... तो भी क्या परेशानी?
अगर वह इतने लोगों के बीच है
और तुम उसे मारना ही चाहते हो....
तो गंडासा पकड़ो
उसे हवा में लहराओ: एकं... दो.... तीन...
अब तुम उसे-उस उनसठ साला कवि को
खींचकर ला सकते हो....
उन दो हजार लोगों के बीच से,
यकीन करो, वे यूं नहीं करेंगे।
इसके बजाए....
जब तुम कवि को बांह या कुर्ता या टांग पकड़कर
जमीन पर घसीटकर ला रहे होगे
मैदान में
किसी ढोर-डंगर की तरह....
दूसरे हाथ में गंड़ासा नचाते....
तुम देखोगे कि लोग भीड़ की शक्ल में बदल गए है....
फिर चाहे वे दो हजार के दो हजार
उसके अपने विघार्थी ही क्यों न हों
जिन्हें उसने आदर्शो के साथ-साथ
अपना रक्त पिलाया हो।
और ऐन उस वक्त
जब गंड़ासा काट रहा होगा
कवि की भुजा....
जिससे उसने लिखीं कविताएं
कवि का मस्तक....
जिसमें दुनिया को बदलने का सपना
और उसका गर्व
और धुर देहाती सरलता रहती थी...
(खालिस खद्दर के मोटे-कुरते में लिपटी।)
गंडासा काट रहा होगा
जब कवि को टुकड़ा-टुकड़ा
तुम देखोगे
भीड़ के चेहरे पर
दहशत के साथ
एक हल्का मजमाई कौतुक भी है।
कि देखें, अब आगे क्या होगा
नाटक का कौन सा नया अंक
सिचुएशन, मुद्रा या संवाद।
और इसीलिए जब पुलिस तफ्तीश के लिए
आएगी
तो उन दो हजार लोगों में से
कोई न होगा
जिसने यह जघन्य कांड होते देखा
पूरे दो हजार में से एक भी नहीं....
जिसकी आंखें ठीक-ठाक हों।
हे राम जी,
कैसा अद्भूत है यह प्रकृति का न्याय
कि वे सबके सब एक साथ अंधे
हो गए थे
एक साथ-
दो हजार धृतराष्ट्र....
जब महाभारत का यह महा अश्लील कांड हो रहा था
ऐन उनकी आंख के आगे....।
सबसे पहले उन्हीं की आंखें चुग जी गंड़ासे ने
कवि तो बाद में मरा....
टुकड़ा-टुकड़ा होकर।
पहले मरे वे दो हजार।