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17:59, 13 जुलाई 2015 के समय का अवतरण
मैं तो सोच रहा था
मेरी चुप्पी तुमसे सब कुछ कह देगी
मेरा मौन तुम्हारे अंतस में
स्वतः मुखरित हो जायेगा
लेकिन लगता नहीं है कि बात बनेगी
बनेगी भी तो पता नहीं
कितना वक्त लगेगा
मेरा ध्ैर्य अब जवाब दे रहा है
मैं अब अपनी बात कहे बिना
रह नहीं सकता
सोचता हूं शुरूआत कहा से करूं
वैसे एक आइडिया है
जो शायद तुम्हें भी पसंद आए
आओ बातचीत के मौजूदा क्रम को बदल लेते हैं
आज जवाबों से
सवालों का पीछा करते हैं
पता है हम तुम क्षितिज क्यों नहीं बन पाए?
इसलिए कि मैं तो तुम्हें ध्रती मानता हूं
मगर तुम मुझे आसमान नहीं समझती
तुम्हें लगता है तुम पर समानुपात का नियम
लागू नहीं होता
मगर एक बात जान लो
मैं भी हमेशा
पाइथागोरियन प्रमेय नहीं रह सकूंगा
मेरी समझदारी का विकर्ण
हमेशा ही
तुम्हारी ज्यादती के लम्ब
और नासमझी के आधर के
बराबर नहीं होगा
मैं द्विघाती समीकरणों का
एक मामूली सा सवाल हूं
आखिर कितने दिनों तक उत्तरविहीन रहूंगा?
क्यों मुझे पफार्मूलों की गोद में डाल रही हो?
तुम्हें पता है न
मैं बहुत प्यासा हूं
मेरे हिस्से के मानसून का
अपहरण न करो
शायद तुम्हें मालूम नहीं
मैं ध्ीरे ध्ीरे रेत बनता जा रहा हूं
इतनी ज्यादती न करो की मैं
पूरा रेगिस्तान बन जाऊं
तुम्हें क्या लगता है
तैंतालीस साल की उम्र में
मुझमें प्रयोगों का नशा चढ़ा है?
भुलावे में हो तुम
इस उम्र में मैं थामस अल्वा एडिसन
बनने की रिहर्सल नहीं कर सकता
क्योंकि मेरा बचपन
जिज्ञासाओं की आकाशगंगा
निहारते नहीं गुजरा
मुझे समय को परछाइयों से
और ध्ूप को जिंदगी से
नापने की तालीम मिली है
मैं इसी विरासत की रोशनी में
अपने मौजूद होने को दर्ज कर रहा हूं
जिन्हें तुम प्रयोग कहती हो
दरअसल वह मेरे स्थायित्व की खोज का
बेचैन सफर है