"साझी पहचान / लोकमित्र गौतम" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लोकमित्र गौतम |अनुवादक= |संग्रह=म...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
18:12, 13 जुलाई 2015 के समय का अवतरण
मुझे नारीवादियो माफ करना
मैं
‘अपनी पहचान, अलहदा पहचान’
के दर्शन को नकारता हूं
इसके लंबे इतिहास
और गहरे सामाजिक प्रभावों के बावजूद
मैं अलहदा नहीं
साझी पहचान का हिमायती हूं
और दावे से कह सकता हूं
जिसने भी तुम्हारे इसके पक्ष में कान भरे हैं
उसे विलयन और संलयन के
रसायनबोध् का जरा भी इल्म नहीं है
वरना
वह पानी को पानी रहने देता
उस पर हाइड्रोजन और आॅक्सीजन की
दोहरी पहचान का बोझ न लादता
मैं, मैं हूं
तुम, तुम हो
हमारी इस भौतिक प्रापर्टी को
भला कौन नकारेगा
मगर सच यह भी है कि
मैं तुम्हारी अनकही
उपकथाओं का शंकुल हूं
तुम मेरा आख्यान
हम दोनांे
मिलकर ही उपन्यास बनते हैं
न मेरे बिना तुम कहानी हो
न तुम्हारे बिना में आख्यान
मानो या न मानो
मेरी अनुपस्थिति में
तुम महज घटना हो
परिघटना नहीं
तुम्हारी गैर मौजूदगी में, मैं
महज परिणाम हूं
एहसास नहीं परिणाम से एहसास तक
हर घटना की परिघटना
हम
सिर्पफ साझे होने पर ही हैं
अलग अलग होने पर नहीं
तुम कहती हो मैं एक किनारा हूं
मैं भी कहता हूं
मैं भी एक किनारा हूं
और नदी
हम दोनो से होकर बहती है
जरा बताओ मुझे
नदी के किनारों की भी कोई अलग से
पहचान होती है?
नदी और उसके किनारे
दो हैं ही नहीं
किनारे तो मल्लाहों की
सहूलियत का संबोध्न हैं
पता नहीं तुमने महसूस किया या नहीं
मैं बुना हुआ नहीं
अन्र्तव्याप्त सन्नाटा हूं
मुझसे ही तुम्हारी
मुखरता ध्वनित होती है
किसी के बहकावे में आकर
तुम मुझे
अपने दोहरे इन्वर्टेडकामा में होने की
कुलीनता न दिखाओ
मैं बिसर्ग बिन्दुओं के भरोसे
नश्वरता से अमरता तक पसरा
तुम्हारा ही आख्यान हूं
मैं मानता हूं
तुम बहुत गहरी नशीली धुन हो
तुममें डूबकर कोई बाहर नहीं निकल पाता
लेकिन तुम्हें शायद पता नहीं
मैं कौन हूं
मैं ललित सुरों से संगति करता
लंबा मौन अलाप हूं
मेरे अंतराल को
मेरा विलोपन न समझो
मेरा यही अंतराल
तुम्हें नशीली धुन बनाता है
तुम्हें बेचैन गूंज में ढालता है
हमारी तुम्हारी
भला कहां दो पहचानें हैं
तुम धूप हो
मैं ऊष्मा हूं
तुम हवा हो
मैं सुगंध हूं
क्या धूप से कोई
उसकी तासीर अलग कर सकता है?
पिफर ऊष्मा को
अपनी अलग से पहचान की क्यों जरूरत हो?
भले प्रयोगशालाओं में
हवा से बिलगा दी जाती हो सुगंध्
लेकिन प्रकृति में तो
सुगंध्ति हवा ही होती है
न कि हवा में सुगंध्
...और लगता नहीं कि मुझे
यह कहने की जरूरत है कि
प्रकृति पूर्ण है
प्रयोगशाला नहीं
बहुत हो गए तर्क वितर्क और कुतर्क
अब तुम मुझे
अपनी पहचान में समा जाने दो
और मेरी पहचान में तुम
तिरोहित हो जाओ
तुम्हारे बिना मैं
बिना तारीख का कलेंडर हूं
मेरे बिना तुम
कालातीत इतिहास हो
आओ मिलकर वर्णमाला से निकाल दें
‘मैं’ और ‘तुम’
और सृजित करें
पहचान की एक साझी वर्णमाला
पहचान का एक
साझा शब्द विन्यास