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"पहचानों मैं कौन हूँ! / संतलाल करुण" के अवतरणों में अंतर

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18:41, 23 जुलाई 2015 के समय का अवतरण

कभी जाड़े की धूप
कभी बरसाती घाम
कभी दुपहरिया गर्मी की होती हूँ
रहती हूँ वैसे
पूसी चाँदनी के भेष में।

आँचल में दूध नहीं
डिब्बे का दूध है
आँखों में पानी नहीं
पूसी बरसात है
स्मित में सुबह नहीं
ज़हर छहर जाता है
हाथों में कोंपल नहीं
शूलों की चुभन है
वक्ष के घरौंदे में
फूल नहीं, कली नहीं, मौसम नहीं
किसी मूरत की गढ़न नहीं
पत्थर-ही-पत्थर है।

पाँव तले रहते
चौराहों के पाँवड़े
रहती हूँ नए
कन्हइयों के गाँव रे
बुद्धि-गोरू-सी
नंगेपन में आसक्ति है
रुपहली-जगमगी
दुनिया से भक्ति है।

पैरों में रुनझुन नहीं
मेंहदी की विहँस नहीं
फिर भी तो बहुत-से
पीछे लगे रहते हैं
घूँघट-आली नहीं हूँ
नक़ाबवाली नहीं हूँ
क्रीम से, पाउडर से, सेंट से
कजरारी धार से
लिपिस्टिक की गाढ़ से
अभिनव संस्कार से
छाती के दाग़ छिपा लेती हूँ
चेहरे पर रंग चढ़ा लेती हूँ।

कठमस्त आँखों से
चाँद नहीं दिखता
अमावस के तारे ही
चुनती-बदलती हूँ
वैसे तो अधरों का
डिनर बहुत भाता है
फिर भी कोई स्वाद
नहीं टिकता
नाचते हैं उँगलियों पर
बहुतेरे लीलाकलम
इकहरे सुगन्ध से
मन नहीं भरता
कोई दिल तक
नहीं उतरता।

बच्चों की झंझट की
होती कम चाह मुझे
रंग उतर जाता है
साख बिगड़ जाती है
होते जो मुझे नहीं
आया को रोते-निहारते हैं
मेरे हसबैंड रात एक बजे
झूमते-झामते घर पहुँचते हैं
उनके मुखड़े पर
काजल के सब चीन्हे
लाली के सब धब्बे
देखती हूँ अच्छी तरह
पूछती नहीं।

शिव के इकार में
सिंदूरी भार में
कितना कुछ बची हूँ
कितना चुक गई हूँ
इसका एहसास यही—
कोकीनी राहों में
गर्त-गर्त हो-होकर
चढ़ती हूँ डोली पर
गन्ने की खोई-सी
आगे फिर पेरते हैं
सेंठे-सा सूखा मन
लौट वही अँधियारे
फिर उन्हीं मुखौटों से
फिर उन्हीं गलियारों में।

बेहया की पौध हुई
चलनी-सी प्यास मेरी
बुझा नहीं पाते जिसे
अपनों के फ़ासले
रिश्ते-नातों के
डीह पड़े मक़बरे
बाहरी उजालों में
जो कुछ भी हाथ लगा
हाँफ रही उसे लिये
भाग रही शहर-शहर।

भोगे हुए सच
मुझे बेगाने लगते हैं
बीते की पाटी पर
किसी भी पल के
कहीं कोई चिह्न नहीं रुक पाते
फिर भी निचोड़ती हूँ
रीते निश्शेष को
कटी पतंग की तरह
ओर-छोर विहीन
बे-सिर-पैर की ज़िंदगी
बेहद पसंद मुझे।

मैं पार्वती नहीं
मरती रहूँ जनम-जनम
एक बौरहे पर
सोने की लंका में
बाट जोहूँ सीता नहीं
संख्या में बँध जाऊँ
सम्मुख समाज के
ऐसी द्रोपदी नहीं
उर्वशी नहीं
जो एक पुरूरवा के लिए
इन्द्रपुरी छोड़ दूँ
छल्ले की क्या बिसात
कई दुष्यंत हैं
मेरी निगाहों में।

मैं विकृति हूँ
सिनेमा-हॉल की
बहुरंगी रूपसी
चौपाटी-ढाल की
घटती हूँ छद्म–सी
तिलस्म-सी, ऐय्यारी-सी
पावों में टूट गए
नागफनी काँटे-सी
कभी-कभी पेड़ पर
छाई अमरबेल-सी
कभी-कभी मुँहबोली
लिपट गई घुँघची-सी
और कभी राह चले
सिगरेटी धुआँ-सी
रत्ती भर दर्द को
क्षण का भी टुकड़ा नहीं
सुख की दहलीज़ पर
मनचाही यायावरी।

मैं नागरी राधा बताती हूँ
अपने हर चहेते से
पर सखियों से तनिक भी
इज़हार नहीं करती हूँ
हर छलिया कृष्ण का
कुछ ही समय भोगती हूँ
किसी के छलावे की
आह नहीं भरती हूँ।

वार-वनिता नहीं हूँ
पूरी तरह घरेलू भी नहीं
पर बाज़ार हूँ
अब तो बताओ
मैं कितनी साकार हूँ
कितनी मौलिक हूँ
कितनी नवीन हूँ ?

क्या नहीं जानते
पहचानते नहीं
मैं कितनी सर्वमान्य हूँ
नवजन-आकर्ष की
विकसित आन-बान हूँ!
आखिर क्यों नहीं बोलते
क्या अब भी अजनबी हूँ
सोच क्या रहे हो –
मैं पंचवटी की छलना हूँ ?
अपने ही अस्तित्व की विरोधिनी
युग-युगीन परित: पोषित नारी-अतिमा ?

नहीं, नहीं --
देखो मेरी कितनी लंबी नाक है
रोज़-बरोज़ बढ़ रही है
मुझे पहचानने के लिए भी
नव दृष्टि चाहिए
सब के बस की नहीं
नवीनों की प्यारी हूँ
ओवर-सूटवालों की
हिप्पी हेयरवालों की
डिस्को-बिअर वालों की
कैबरे मतवालों की
तुम से तो बाज आई
ओ भारत-भोंदू,
बाय! बाय!