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"पथवृक्ष / संतलाल करुण" के अवतरणों में अंतर

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18:44, 23 जुलाई 2015 के समय का अवतरण

लट्टू नचाकर अलग हुई
हवा में लहर खाती डोर-सा
मैं काँप रहा हूँ
और नाच-नाचकर निढाल हुए
लट्टू की तरह
मैं ही धरती पर पसरा हूँ
तुम जा सकते हो, बँधु!
क्योंकि मैं हाथ नहीं हूँ।

सौगन्ध! भरी रातों में
भर-भर आए उन होठों की
जिन पर झुके गाढ़-मादक चुंबनों में
दुनिया के सारे रस, गंध, वैभव, गौरव
एक साथ समाहित हो जाते
मैंने कब चाहा
कि प्यार, दोस्ती, साथ
मुझसे दूर चले जाएँ
किन्तु भरी भीड़ में मैं अकेला हूँ
और मेरी मुट्ठी खाली है।
सघन-कँटीली झाड़ियों में भरज़ोर
फेंके गए कच्चे ढेले की तरह
बिन घाव, बिन ख़ून, बिन आँसू
मैं भीतर तक छिल रहा हूँ
क्योंकि मैं हाथ नहीं हूँ।

हाथ मिलाने का साथ
हँसने-हँसाने का साथ
दुखों का बोझ हिल-मिल उठाने का साथ
या फिर गर्म बाँहों के घेरे में
चढ़ती साँसों के परस्पर संजीवन का साथ
जीवन इन सब का होता है
इन सब का हाथ गहकर चलता है
किन्तु एक झटके में तोड़
अपनी रौ में नोच-नोचकर
फेंकते जाने के खेल में कुशल हाथ
कितनी निष्ठुरता से
तार-तार करके चले गए
और मैं सूनी राह पर
उखड़ी पंखुड़ियों की तरह बिखरा हूँ
जीवन की इस विडम्बना पर
कि कोई साथ अंततः ठहरता नहीं
एक और हस्ताक्षर करके
तुम जा सकते हो, बँधु!
क्योंकि मैं हाथ नहीं हूँ।

मैं हाथ नहीं हूँ, बँधु!
पथ हूँ, पैर हूँ, दृष्टि हूँ
पर डग नहीं हूँ
गति नहीं हूँ
मेरा दर्द हवा की उन काँपती हुई
पागल तरंगों से क्यों नहीं पूछते
जिसमें फूल की गंध विद्यमान रह गई है
हर बार अपना सिर पटकती उन्हीं वायु-तरंगों-सा
टूटकर शेष रह गया हूँ मैं।
समय के घोड़े पर सवार
सारे प्यार, सारी दोस्ती, सारे साथ
मेरे हृदय-पथवृक्ष की डाल-डाल
झकझोर कर भाग खड़े हुए
और संवेदनाओं की मेरी जड़ें
इतनी जड़ हो गई हैं
कि एक क़दम भी नहीं चल सकतीं।
इसलिए जाओ बँधु! जाओ
मैं अभिशप्त हूँ
तुम्हें भी जाते हुए देखने के लिए
क्योंकि मैं हाथ नहीं हूँ।