भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"गाँस ख़ंजरशुदा हो गई / संतलाल करुण" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संतलाल करुण |अनुवादक= |संग्रह=अतल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
18:53, 23 जुलाई 2015 के समय का अवतरण
डूब सूरज गया दोपहर का
चाँदनी भी विदा हो गई।
रात अँधेरी न घर तेल-बाती
तनहा कटतीं न काटे ये रातें
लद गईं दर्द की मारी पलकें
नींद जैसे हवा हो गई।
टूटे दर्पन की तीखी दरारें
जिन पे उँगली फिराती हैं सुधियाँ
घाव फिर-फिर हरे हो रहे
गाँस खंजरशुदा हो गई।
मील-पत्थर-सा ऐसा क्या जीना
खंडहर-मौत क्या मर न पाए
रोज ज़िंदा दफ़न करती अपना
ज़िन्दगी खुद सज़ा हो गई।
नाव कागज़ की ओ, खेनेवाले!
सिर्फ़ वादे ही भारी लगे क्यों?
आँसू दिल के धुआँ हो गए
साँस जलती चिता हो गई।