"चतुर्थसर्ग / अम्ब-चरित / सीताराम झा" के अवतरणों में अंतर
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चौपाई
सहजहिं अनुपम जनकनगर छल
सुमति सुजन सुख धन घर घर छल।
बढ़ल तकर पुनि अद्ीाुत गति सौं
गुन गौरव सीता उत्पति सौं॥1॥
पूर्व रमा अवतरली जल सौं
भेली प्रगट आइ भूतल सौं।
सब जन जनकक भाग्य सराहथि
सुकृति सुजनगन दरसन चाहथि॥2॥
सकल नारि नर देश-विदेशक
सुनि सुनि आबि भवन मिथिलेशक।
परसि जनकपद दुरित दुराबथि
सीताछबि लखि नयन जुड़ावथि॥3॥
अपन अपन मनकाम पुराबथि
निज घर घरि गप विविध उड़ाबथि।
नभ विमान-गत सुरगन आबथि
नृपगुन गाबि सुमन बरिसाबथि॥4॥
बुझि दूरक याचकगन आबथि
जनक कनक धन रतन लुटाबथि।
देखथि तदपि भवन नृप दम्पति
दिन दूगुन निसि चौगुन सम्पति॥5॥
करितहुँ दान नृपक प्रति छन में
विद्यहि जकाँ बाढ़ि छल धन में।
किछु दिन में पुनि औरस कन्या
भेली पाबि सुनयना धन्या॥6॥
कमल सुकोमल-कान्ति उजागरि
सीतहि सदृश सकल गुन आगरि।
“लछमी संग सिद्धि जनु ऐली।”
बुझि रानी सुख-सिन्धु समैली॥7॥
मोदतरंग उमरि उर ऐलनि
तैं नृप नाम ‘ऊर्मिला’ धैलनि।
यद्यपि नृप दम्पतिक पियारी
युगल नयन सन युगल कुमारी॥8॥
जानि जनकिक पयर सुलच्छन
करथि सिनेह विशेष सदच्छन।
श्री मिथिला अधिपति परिपालित
नेह सहित रानिक करलालित॥9॥
सीता तनु उपचित छल तहिना
धवल दलक शशिमण्डल जहिना।
बढ़ल सकल शोभा नृपधानिक
केवल घटल राति अधिरानिक॥10॥
सीता कयल मनक आकरसन
कल नहिं पलक पलहुँ बिनु दरसन।
घर बाहर लय कोर बुलाबथि
कौखन पालन-उपर झुलाबथि॥11॥
जे निज इच्छहि जगत चलाबथि
तनिका रानी चलब सिखाबथि।
धय आङुर कहि “दिग दिग भैया
चलु चलु बुचनी मुनियाँ दैया”॥12॥
सिखलनि चलब छनेक सिखौनहि
लगली बाजय विना बजौनहि।
सुनि सुनि होथिी मुदित मन रानी
परम मधुर मृदु विस्फुट वानी॥13॥
सीतल जल मिसरी जनु घोरल
गुलजामुन चीनी - रस - बोरल।
जहि तुलना में सुधा तुच्छ छल
पिकशिशुकलरव परम रुच्छ छल॥14॥
सिखलनि अक्षर विना लिखौनहिं
गीतनाद पुनि विना सिखौनहिं।
नहिं गुन देथि पिता ओ माता
गर्भहि सब सिरजै छथि धाता॥15॥
संगहि जाति स्वभाव रूप तन
कर्म-सदृश सुख दुख धन जीवन।
भावी जे बल बुद्धि रहै अछि
से जनमहिं आकृति कहि दै अछि॥16॥
गुन अवगुन जे जकर रहै अछि
से बचपन बयसहि झलकै अछि।
जखन कने ट्यौलकि पुनि भेली
तखन मुदित मिलि सकल सहेली॥17॥
माइक निकट पढ़थि ओ लीखथि
संगहि घरक काज सब सीखथि।
राखल वस्तु जतय ससौं लाबथि
पुनि कय काज ततहि धय आबथि॥18॥
निज गुरुजनक धाख मन राखथि
सपनहु फूसि वचन नहि भाखथि।
घर में सबसौं पहिनहिं जागथि
उठि नित गोड़ मायकैं लागथि॥19॥
आलस लेस-मात्र नहिं तनमें
छूति न इरषा द्वेष-क मन में।
नीक निकुल अपनहिं नहिं खाइति-
छली कतहु एकसरि नहिं जाइति॥20॥
सकल बहिनि ओ सखी सहेली-
मिलि रहैत सबहिक प्रिय भेली।
हुनक गुनक भय सकय न लेखा
सतत ओठपर हासक रेखा॥21॥
जनु प्रसन्नता सरसिक लहरी
उमरि हृदयसौं आबय बहरी।
दाँतक पाँतिक छवि पुनि छाजै
जनु उत्पल-पर कुन्द विराजै॥22॥
अति उज्ज्वल निर्मल मनहारी
जनु प्रवालपर मोतिक धारी।
सकल सखी सौं मन छल रीतल
सैसव वयस कुशलसौं बीतल॥23॥
सीताकैं बुझि धर्मक बेटी
हुनक हेतु सिंगारक पेटी।
देलनि नव बनवाय मनोहर
खर्च करथि लय धयल धरोहर॥24॥
हरषित हृदय विदेहक जाया
नव नव आंगी सारी साया।
झरनी ककबा टिकुली अयना
नित नव कीनथि मुदित सुनयना॥25॥
टकुरी अलता गद्दी डोरा
साबुन सपरी सिन्दुरघोरा।
पनबट्टी पुनि रंग विरंगक
रतन घटित भूषण प्रति अंगक॥26॥
नित पहिराय निहारथि सूरति
मानू विरचि सुवर्णक मूरति।
ततय सकल शोभा संसारक
कोमलता पुनि सकल प्रकारक॥27॥
समटि देल विन्यासि विधाता
देखि मुदितमन हुलसथि माता।
क्रमहि कुमारि वयस ता बीतल
विश्वक शोभाकैं छवि जीतल॥28॥
गति लखि हंस निमज्जित मानस
गज वन गेल विलज्जित-मानस।
जाय घुरय पुनि खंजनि हेहरि
कटि लखि गेल सघन वन केहरि॥29॥
चरणक छवि लग गेल गमल अछि
सार्थ नाम बनि कमल कमल अछि।
जौं कदली नहिं उनटल रहितय
तौं जाँघक किछु उपमा लहितय॥30॥
करिकर कर्कस बिस तर थालक
नहिं उपमा जग में भुज-नालक।
करतल निरखि मलिनमुख यावक
मुरुझाइछ पुनि फूल गुलाबक॥31॥
नव रसाल पल्लव मधुआइछ
विकसि कमल दल नित सकुचाइछ।
रद सौं दाड़िम बीज बिलज्जित
दृग लखि इन्दीवर जल-मज्जित॥32॥
बुझि “कपोल सौं मान घटै अछि”
दाड़िम-फल क करेज फटै अछि।
निरखि अधरदुति बिम्ब लजाइछ
लतिअहिं लटकि ठिठुरि गलि जाइछ॥33॥
कचकलाप लखि पुच्छ नुकबितय
जौं चमरी किछुओ मति पबितय।
जौं विवेक रखितय पिक टोली
तौं चुप ह्वैत हिनक सुनि बोली॥34॥
शशि सौं सार काढ़ि चतुरानन
रचलनि सीता देविक आनन।
छेद भेल से मलिन अंक थिक
नहिं सस, मृग, वा नहिं कलंक थिक॥35॥
अनुपम गुनगन विलसित सीता
शुभ सुशीलवति सुमति पुनीता।
पाबि पुण्यवश ई बिधि कन्या
धन्य जनक मिथिला पुनि धन्या॥36॥
मुक्तकण्ठ ई सब जन बाजय
मिथिला स्वर्गहु सौं बढ़ि राजय।
माय आदि गुरुजन लग सीता
सिखलनि सब गृह काज विनीता॥37॥
टकुरी चरखा सिबिया बुनिया
ऐपन पुरहर कुटिया पिसिया।
खोपा खोपी जूड़ा बान्हब
दालि-भात-तरकारी रान्हब॥38॥
पिता निकट सुनि कथा पुरानक
बुझलनि तत्त्व शास्त्र श्रुति ज्ञानक।
ईश्वर सम निज बाप माय कैं
मानथि गुरुवत जेठ भाय कैं॥39॥
भाउजि कैं मातावत मानथि
प्रान समान बहिनि कैं जानथि।
सकल सखी में बहिनिक समता
सखी सदृश दासी में ममता॥40॥
बन्धु सदृश पुरजन कैं देखथि
अपन समान सकल जग लेखथि।
दासीसंग स्वकाज सम्हारथि
जौं ककरहु पुनि श्रान्त निहारथि॥41॥
तौं तकरा नहिं टहल अढ़ाबथि
वरु अपनहिं उठि जल भरि लाबथि।
सीता में गुन लखि ई रूपक
परि-जन पुरजन रानी भूपक॥42॥
मन प्रमोद पुनि जानि अचानक
समय उपस्थित कन्यादानक।
भेल सभक मन चिन्ता व्यापित
तुरत बजौलनि ब्राह्मण नापित॥43॥
सबकैं भूपति कहल बुझा कय
“सीता हेतु योग्य वर ताकय।
जाउ अहाँ सब नगर नगर में
घूमि घूमि देखू घर घर में॥44॥
वर नीरोग नृपति नव नागर
वयस बुद्धि बल विद्या आगर।
अवगुनहीन विदेशी देसी
सब गुन में सीता सौं बेसी॥45॥
भेटथि जतय देखि से आऊ
सीता कैं गुन सबक सुनाऊ।
ई कहि भूप स्वस्थ मन भेला
वर ताकय ब्राह्मणगन गेला॥46॥
ताबहि लय निज संग सहेली
सीता आङन सौं बहरेली।
देखय नव नव दृश्य नगर में
के अछि कतय कोन विधि घर में॥47॥
अहि बुधि सौं लय आज्ञा माइक
कयलनि मन इच्छा बहराइक।
टपितहि राजदुआरि क फाटक
हाटक भवन रतन-मनि-हाटक॥48॥
भरल विचित्र दुहूदिस बाटक
लखितहि लागल नयन तराटक।
सूती ऊनी रेसम पाटक
नव नव वसन बनल सब काटक॥49॥
रंग बिरंग क धोती सारी
अंगा आंङी सब तैय्यारी।
नूपुर कङना करधनि हारी
विविध विभूषण जनमन-हारी॥50॥
बहुविध वासन लोटा थारी
राजित साजल वस्तुक धारी।
सकल अन्न फल ओ तरकारी
नियमित एक मोल सरकारी॥51॥
विविध सुधोपम खाद्य पेय छल
मन-वांछित विक्रेय क्रेय छल।
कतहु बिकाइत ककबा अयना-
आदि करोड़हु विध लटकयना॥62॥
विविध रतन मनि धाम कतहु छल
कँसकुट पित्तर ताम कतहु छल।
छाता छड़ी खराम कतहु छल
ने पनहीं नहिं चाम कतहु छल॥53॥
कटहर जामुन आम कतहु छल
दाड़िम दाख लताम कतहु छल।
एको वस्तु नहिं खाम कतहु छल
ने छल कपटक नाम कतहु छल॥54॥
विश्रामक शुभ ठाम कतहु छल
ने सरदी ने घाम कतहु छल।
दिव्य पदार्थ सकल संसारक
देखल घर घर भरल बजारक॥55॥
गाहक बनियाँ ओ परिचारक
सब प्रसन्न क्रय-विक्रय-कारक।
दृढ़ विश्वास परस्पर सब में
सम सम्मति पुरान ओ नव में॥56॥
पथ पर कतहु थाल नहिं धूरा
लेशमात्र नहिं कुरकुट कूरा।
ठाम ठाम राखल पिकदानी
फेकय थूक ताहि में प्रानी॥57॥
अतर गुलाबक जल सौं सिंचित
पथ नहिं कष्ट पथिक कैं किंचित।
ई विधि छवि लखि हरषित भेली
सीता दोसर पथ पुनि गेली॥58॥
जतय कचहरी भवन मनोहर
विविध बनल छल नृपक धरोहर।
ने क्यौ ततय एको अभियोगी
असपताल में नहिं क्यौ रोगी॥59॥
देखल नृपक विविध कार्यालय
जतय अपन करतब सब पालय।
तहि ठाँसौं घुरि सहित सहेली
सीता तेसर पथ दिसि भेली॥60॥
देखल गुरुकुल में चटिसारक
भवन बनल पुनि विविध प्रकारक।
कूसक आयन कुसहिक पटिया-
पर पढ़ैत गुरुजन लग चटिया॥61॥
सुनि बटुमुख वेदक धुनि पावन
मन परि ऐलनि बीतल सावन।
बेरि देखि किछु मन अगुतैलनि
सखी सहित चारिम पथ धैलनि॥62॥
देखल ततहु अनेक प्रकारक
भवन बनल अध्यात्मविचारक।
जतय आबि बुध जन सब प्रान्तक
करथि विचार वेद वेदान्तक॥63॥
उपचित पुण्य लेश नहिं पापक
सब थल सुनल सुयश निज बापक।
घुमि घुमि ई बिधि नगर परेखल
अद्भुत एक धनुष पुनि देखल॥64॥
अति विसाल लखि हो मन धोखा
खसल धरा पर जनु पनिसोखा।
पूछल सब सौं परिचय धनुषक
कहल सखीगन नहिं थिक मनुषक॥65॥
रखने छथि ई धनुष पुरारी
अछि सुमेरु पर्वत सौं भारी।
सीता मनहि कुतूहल लेखल
सहसा कर उठाय धनु देखल॥66॥
मोड़ि चढ़ाय उतारल डोरी
राखि देल पुनि जनककिसोरी।
दखि चरित ई संग सहेली
अजगुत जानि चकित चित भेली॥67॥
“मनुष धनुष नहिं टारि सकै अछि
नहिं दनुजो कर धारि सकै अछि।
देवि-अंश जनु थिकी जानकी
ई विधि क्यौ कय सकल आन की!”॥68॥
कापल कोंढ़ सभक बुझि थर थर
बिजली जकाँ बात ई घर घर।
पसरि गेल सब थल पुनि छन में
नहिं आश्चर्य विदेहक मन में॥69॥
माता सूनि चकित चित भेली
ता सीता घुरि आङन गेली।
जैतहिं कहय सखी सब लागलि
रानी जानि सबहि कैं पागलि॥70॥
अति अजगुत गप नहिं पतिऐली
सीता सौं अपनहिं बतिऐली।
दाइ अहाँ जस हमर बढ़ौलहुँ
की सरिपहुँ शिव धनुष उठौलहुँ॥71॥
उर लगाय पूछल महरानी
सीता विहुँसि कहल मृदुबानी।
माय! आइ हम बूिलय गेलहुँ
देखल धनुष चकित मन भेलहुँ॥72॥
कहलक सखि ई अछि बड़ भारी
रखने छथि अहिठाम पुरारी।
क्यौ नहिं आन उठाय सकै अछि
हम जानल कहि फूसि ठकै अछि॥73॥
मनमें किछु सन्देहो लेखल
तैं उठाय तकरा हम देखल।
पुनि उतारि रखलहुँ हम तहिना
पहिने सौं राखल छल जहिना॥74॥
हमरा बुझने नहि अछि भारी
जते बुझै अछि लोक अनारी।
ई कहि पुनि सीता चुप भेली
कयल टिप्पनी संग सहेली॥75॥
“नहिं नहिं दैया बात छिपौलनि
फूल जकाँ ई धनुष उठौलनि।
मोड़ि ताहि पर डोरि चढ़ौलनि
हमरा सभक कोंढ़ दहलौलनि॥76॥
देख तारु में जीह सटै छल
सब क्यौ आङुर दाँत कटै छल।
अपनहि मन उतारि पुनि धैलनि
आइ दाइ अति अजगुत कैलनि”॥77॥
रानी कैं बुझि पड़लनि अपना
मानू देखि रहल छी सपना।
सुनि सुनि आबि परोसिनि नारी
सब जनि कयलनि गपक पुछारी॥78॥
जानि बात अति अद्भुत भारी
“सीता ई नहिं मनुज कुमारी।
रानिक घर लछमी अबतरली”
कहि कहि अपन अपन घर टरली॥79॥
बुझि विदेह ई हृदय विचारल
वरताकब पद्धति कैं छारल।
झट पट सभा भवन सजवौलनि
मान्य विज्ञजन कैं बजबौलनि॥80॥
सबकैं सीताचरित सुनौलनि
द्विजगन मिथिलेशक गुन गौलनि।
सब पुनि शास्त्र विचार सुनावल
कन्यारत्न अहाँ नृप! पावल॥81॥
हिनक योग्य वर दुर्लभ जग में
भेटि सकैछ कतय पुनि लग में।
बल-गुन रूप अधिक हो जकरा
कन्या सौं, कन्या दी तकरा॥82॥
वर थिक वर यदि वयस सवैया
द्विगुन वयस सम, अधम अढ़ैया।
तहिसौं अधिक वयस वर त्यागी
नहिं तौं दाता नरक क भागी॥83॥
प्रथम वरक गुन वयस-परीक्षा
तखन करक थिक अपर समीक्षा।
शुभक विवाह जानु श्रुति-घोषित
जतय प्रवर वर, अवरा योषित॥84॥
अवरक वरण करथि नहिं नारी
रहथि वरुक आजन्म कुमारी।
ई विपरीत विवाह कहाबय
दाता नरक भोग फल पाबय॥85॥
दम्पति गुन विपरीत जतय हो
सतत अहेतुक कलह ततय हो।
जतय कलह से विपतिक वन थिक
नर क भवन से नरक-भवन थिक॥86॥
जतहि सनेह पतिक वश जाया
से घर कल्पतरुक थिक छाया।
जतय नारि वश ततहि प्रेम हो
जतय प्रेम तत कुशल छेम हो॥87॥
सीता शम्भुक धनुष उठौलनि
अपन अलौकिकता दरसौलनि।
तैं जे क्यौ शिव धनुष उठाबथि
गुन सौं सीता कैं वश लाबथि॥88॥
से कन्या-ग्रहणक अधिकारी
नहिं तौं सीता रहथु कुमारी।
जे कन्या हो गुन गन-धारिनि
जे कन्या हो गुन गन-धारिनि
से थिकि स्वयंवरक अधिकारिनि॥89॥
‘सप्तशती’ में नारि-प्रतिज्ञा
छथि कहने अम्बिका अभिज्ञा।
“जे हमरा सौं जीतय रन में
होए अधिक बुधि गुन ओ धन में॥90॥
क्यौ हो अमर मनुज वा दानव
तकरहि हम अप्पन पति मानव।”
तैं नृप! मिलि निजबन्धु विचारी
भय कन्यादानक अधिकारी॥91॥
सब विधि प्रथम वरक गुन थाही
कन्यादान करक पुनि चाही।
ई हम कहल देखि श्रुति वानी
करी उचित अपने जे जानी॥92॥
द्विजगन-वचन जनक मन मानल
तहि विधि अपन प्रतिज्ञा ठानल।
“गुन सौं सीता कैं वश लाबथि
जे क्यौ शम्भुक धनुष उठाबथि॥93॥
धनुष उठाय चढ़ाबथि डोरी
करती तनिकहि वरण किशोरी।
नहि पर पानि-गहक अधिकारी
रहती वरु आजन्म कुमारी”॥94॥
ई प्रन सबकैं भूप सुनावल
लिखि पुनि देश-विदेश पठावल।
नहिं नृपकैं किछु हर्ष शोक छल
अकबक में सब पड़ल लोक छल॥95॥
सीता देविक संग सहेली
सुनितहि प्रन सब जनि अकुलैली।
नहिं केवल अपने घवरेली
तनु पुलकित हरषित मन भेली॥96॥
हरषित हृदय श्री जानकी तातक प्रतिज्ञा जानिकै
रानीक दहलल कोंढ़ ई प्रन कठिन दुस्सह मानिकै।
बजतीह की विधि रेख सौं बढ़ि मानि पति आदेशकैं
लगली सविधि पूजय रमा गौरी गिरीश गणेशकैं॥97॥
सीताशैशव चरित ओ जनक क प्रनसौं व्याप्त॥
अम्बचरित में भेल ई चारिम सर्ग समाप्त॥4॥