"कहू कुशल / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’" के अवतरणों में अंतर
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जकरासँ जेम्हरे भेट होइछ
से सब पुछैत अछि-‘कहू कुशल’!
बुझना जाइत अछि जैना-
एहि युगसँ ई स्वयम् अपरिचित हो।
एकरा करेजमे नहि लगैत छै’ युगक धाह?
एकरा न खबरि छै आइ मानवक द्वारेँ मानव अछि तबाह?
ई नहि जनैछ जे पाखण्डीक हृदय होइत छै’ केहन स्याह,
नहि एकर कान सुनि सकलै’ अछि
जग-विध्वंसक बिस्फोट सदृश
अग्नि-स्फुलिंग सन तेज
करोड़ो पद-दलितक करुणार्द्र आह?
एखनहुँ धरि जीवन-पथक गरल कण्ठक नीचाँ नहि जा सकलै’
एखनहुँ धरि एकरा हृदय-कुहरमे
‘मानवता न समा सकलै’
चलिते-चलिते पिच्छड़ पथपर
प्रायः कहिओ ई नहि हूसल,
तेँ ने पुछैत अछि कहू कुशल?
जकरामे कनिओ छैक चेतना लेशमात्र,
से नहि जनैत अछि सुख, जनैत अछि क्लेश मात्र,
खाली पहिनेसँ छलै, घैल दूधक,
परन्तु खाली छै’ सम्प्रति छोट छीन जलपात्र मात्र
सौंसे जीवन सोझाँमे पड़ल पहाड़ जकाँ
तनमे हड्डीकेर छैक बचल अवशेष मात्र,
की कहियो क्षुधा-पिपासावश
तृष्णावश, घृणा-निराशावश
कय कुत्सित कर्म, तखन अपने अन्तरसँ
गेल न अछि धूसल
तेँ ने पुछै त अछि कहू कुशल?
हमरा तँ बुझना जाइछ जे ई हमर देश
हड़बड़मे जे किछु पौलक अछि
तकरासँ बीस गुना बेसी मङनीमे जाय गमौलक अछि।
युग बाजी लेगा बढ़ल पथपर
पहिने जे जाय मनुजताकेँ धकिया कय
नीचाँ खसा सकत, से बैसत जा ण्वर्सक रथपर,
सब घूमि रहल ‘इति’ लग सरिपहुँ
आ बूझि रहल अछि- ‘छी ‘अथ’ पर।
ककरा कहबै’, के कान देत,
अनकालय के बलिदान देत,
एसगर दोसगर मे जँ पौलक तँ चूसिलेत शोणित समेत
एकरा ई सब नहि छैक पता सब थिक पिशाच सब थीक प्रेत?
छथि जखन विधाता धरि रूसल
तँ की पुछैत अछि कहू कुशल।
ई जीवन थिक बड़का जहाज,
जकरा ओइपार लगयबामे कोइला पानिक पड़तैक काज
अन्हड़-बिहाड़िमे संग देत
से सम्मुख अछि आन्हर समाज
स्वार्थक ज्वाला धुधुआय रहल तँ ककर पुछारी के करतै’
अपनासँ छुट्टी छैकेने ओ आनक हाथ कोना धरतै’
जनिका मुट्ठीमे सत्ता छनि
तनिका कर शोभित छनि मूसल
ओ नहि पुछैत छथि कहू कुशल,
जकरासँ जेम्हरे भेट होइछ
से सब पुछैत अछि कहू कुशल।