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दुरुगे! दशा-दृग दिय फेरि
देखु दश दिशि दशा देशक दासता दृढस़् घेरि।
दुरति-दारिणि, दुष्ट-दापिनि, दीप्ति दामिनि गात,
देवि! दुर्गति-नाशिनी अहँ दिक दिगंचल ख्यात।
दनुज-दल दुरदमन दापेँ दबथि देव-समाज,
दुरल दान दहेज देवक दक्षिणहुसँ बाज।
दुलभ दाना-पानि दुर्घट दूध-दधि एहि काल,
दहथि दम्पति देह दूबर देखि दुखित दुलाल।
दक्ष देहरि देह दाहल देखि दायक नाश,
देरि की देखितहु दिगम्बरि देश दुर्वश ‘दास’’॥