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अरे, वाह! रे निर्दय काल!
कय ले ताण्डव नृत्य निर्दयी, दय प्रलयंकर ताल।
तपन-तेज सँ खूब तपा दे,
प्रलयानलकेँ जगा जगा दे,
झंझानिलसँ मेल करा दे,
अट्टहास कय उठल अनल, ओ करय नृत्य विकराल।
अरे! वाह! रे निर्दय काल!
अनलोच्छिष्ट रहय जे भूपर,
संवर्त्तक वरिसय तहि ऊपर,
उमड़ि चलय जलधारा धरधर
घहरि उठय ओ ऊर्मि उदधिकेँ करय घोर अस्फाल।
अरे! वाह! रे निर्दय काल!
अम्बर अशनि तोड़ तड़ तड़ कय,
टूटि खसय रवि-शशि धड़ धड़ कय,
जाय रसातल महि जर्जर भय,
करथि भैरवी भैरव-गर्जन धारि मुण्ड उर-माल।
अरे! वाह! रे निर्दय काल!
एक रूपमे हो सब संघट,
ऊठि जाय जगसँ दुःख्चा संकट,
मिटय दासता रूपक झंझट,
छिन्न-भिन्न भय जाय विदेशी-रचल प्रपंचक जाल।
अरे!वाह! रे निर्दय काल!