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"काला कौआ / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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उजला-उजला हंस एक दिन
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उड़ते-उड़ते आया,
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हंस देखकर काला कौआ
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मन ही मन शरमाया।
  
आज उठा मैं सबसे पहले!
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लगा सोचने उजला-उजला
सबसे पहले आज सुनूँगा,
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मैं कैसे हो पाऊँ-
हवा सवेरे की चलने पर,
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उजला हो सकता हूँ
हिल, पत्तों का करना ‘हर-हर’
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साबुन से मैं अगर नहाऊँ।
देखूँगा, पूरब में फैले बादल पीले,
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लाल, सुनहले!
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आज उठा मैं सबसे पहले!
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यही सोचता मेरे घ्ज्ञर पर
सबसे पहले आज सुनूँगा,
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आया काला कागा,
चिड़िया का डैने फड़का कर
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और गुसलखाने से मेरा
चहक-चहककर उड़ना ‘फर-फर’
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साबुन लेकर भागा।
देखूँगा, पूरब में फैले बादल पीले,
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लाल सुनहले!
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आज उठा मैं सबसे पहले!
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फिर जाकर गड़ही पर उसने
सबसे पहले आज चुनूँगा,
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साबुन खूब लगाया,
पौधे-पौधे की डाली पर,
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खूब नहाया, मगर न अपना
फूल खिले जो सुंदर-सुंदर
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कालापन धो पाया।
देखूँगा, पूरब में फैले बादल पीले?
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लाल, सुनहले
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आज उठा मैं सबसे पहले!
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मिटा न उसका कालापन तो
सबसे कहता आज फिरूँगा,
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मन ही मन पछताया,
कैसे पहला पत्ता डोला,
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पास हंस के कभी न फिर वह
कैसे पहला पंछी बोला,
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काला कौआ आया।
कैसे कलियों ने मुँह खोला
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कैसे पूरब ने फैलाए बादल पीले,
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लाल, सुनहले!
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आज उठा मैं सबसे पहले!
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16:47, 1 सितम्बर 2015 के समय का अवतरण

उजला-उजला हंस एक दिन
उड़ते-उड़ते आया,
हंस देखकर काला कौआ
मन ही मन शरमाया।

लगा सोचने उजला-उजला
मैं कैसे हो पाऊँ-
उजला हो सकता हूँ
साबुन से मैं अगर नहाऊँ।

यही सोचता मेरे घ्ज्ञर पर
आया काला कागा,
और गुसलखाने से मेरा
साबुन लेकर भागा।

फिर जाकर गड़ही पर उसने
साबुन खूब लगाया,
खूब नहाया, मगर न अपना
कालापन धो पाया।

मिटा न उसका कालापन तो
मन ही मन पछताया,
पास हंस के कभी न फिर वह
काला कौआ आया।