भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सूख चलें खेत / राजेन्द्र प्रसाद सिंह" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र प्रसाद सिंह |अनुवादक= |...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

14:55, 3 सितम्बर 2015 के समय का अवतरण

सूख चले खेत सेंत-मेंत के,
उठ रहे बवंडर अब रेत के,
चलो, जरा नींद तोड़ देखें,
चुप्पी में भरा शोर देखें.

धनि-धनि खिलती – सी बस्ती
सुलग रही हँसी को तरसती,
वर्षा से हर्षाती हवा की
याद आज बिस्तर को डंसती.

उजड़ गया गमलों का बाग़ भी
बन्द हुआ टिटही का राग भी,
चलो बाँधकर अँजुरी देखें-
शोर में भरी चुप्पी देखें.

गहमागहमी यह शहराती
पाँवों से लिपट-लिपट जाती,
नींद और हँसी जो खरीदों,
-कीमत सुरसा बनती जाती.

रहने को तो गन्दी गली है,
खटने को ही सतमंजिली है,
चलो, बदलकर चश्मा देखें,
टुकड़ों में बंटा समां देखे .

गाँव और कस्बों से बहार
हथियारों के हैं सौदागर
यह अकाल, भूक और सूखा
बदले में लेंगे क्या खाकर?

कहने को बाहर सनसनी है,
बन्द मगर अपनी चिटखनी है,
झूट के बहाने भर देखें,
छूटकर निशाने पर देखें