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अनादि भाव-मेघ से भरा गगन,
अनंत कर्म-धार से भरी मही !
मगर उभय दिशा-प्रसार में कहीं,
सुगंध आदि-अंत की न मिट रही!
सुगंध यह अमन्द, रूप-राशि की,
मधुर, परन्तु तिक्त भी, मदिर सदा!
अजेय मोह, दुर्निवार भोग की –
व्यथा-पुलक बनी अमूल्य सम्पदा!
अरूप से बँधा समस्त रूप है,
सुगंध आदि-अंत की बँधी हुई –
अखंड वृत्त-बीच द्रव्य-मंडली
विकास के प्रवाह में सधी हुई!
अटूट यह अदृश्य रज्जु-बन्ध रे!
अपूर्ण है समस्त दृश्य की कला,
कुमुद कभी मुँदा, कभी मुँदा कमल,
दिनेश ढल गया कि चाँद भी ढला!
अपार भाव-कर्म के वितान में,
छिपी सजीव रत्न-सी अपूर्णता!
अशेष देश पर अशेष काल के
अशेष पाद-चिन्ह-सी अपूर्णता!