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"धाप्या ढेढ़ / असंगघोष" के अवतरणों में अंतर

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21:53, 14 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण

लोग जाते हैं रोज
इस चहारदिवारी के भीतर
सुबह सुबह
कुछ अकेले
कुछ महरारू तो
कुछ किसी और के साथ
कुछ घूमते हैं
कुछ दौड़ते हैं
कुछ मार्निंग वॉक करते हैं
कुछ योगा
मैं अपना झोला सम्हाले
बैठा रहता हूँ
ग्राहक की आस में
शायद इनमें से कोई हो
जिसका जूता फटे, दौड़ते हुए
वो रिपेयर कराने आए मेरे पास
आज तक तो कोई नहीं आया
पर उम्मीद रखने में
मेरे बाप का क्या बिगड़ता है
वो भी किंग्स गार्डन के सामने
नर्मदा क्लब के किनारे
जहाँ अपनी आँखों से
सेहत ठीक करते रहते हैं
ये बड़े लोग
एक दिन कौतुहलवश
मैं भी चला गया
किंग्स गार्डन के भीतर
मुझे देख जो दौड़ रहे थे
वे यकायक रुक गए
जो चल रहे थे
उनके पाँव थम गए
पत्थर की बेंच पर
बैठे लेाग मेरी ओर
घृणापूर्वक देखने लगे
जो कर रहे थे कपालभारती
उनकी सांस ऊपर की ऊपर और
नीचे की नीचे रह गई
सम्भवतः सोचने लगे
यह मैला-कुचैला
क्यों घुस आया है
हमारी दिनचर्या में

शाम को फिर से
जमने लगती है
रंग-बिरंगे परिधानों में
सजी-सँवरी ीाीड़
किंग्स गार्डन में
जिसके बाहर चाट के
खोमचे खड़े रहते हैं
मैं ग्राहक की आस में
टूंगता रहता हूँ उन्हें
जो खा-खाकर
मुटियाते जा रहे हैं
हमारे हिस्से का अन्न भी
खोजती रहती हैं
मेरी नजरें उनमें से
कोई एक भूखा भी मिले
जिसमें व्यापती हो
उसकी भूख
फैलते अंधकार की तरह
वो खा रहा हो
अपनी भूख मिटाने।