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"युगबोध / श्यामनन्दन किशोर" के अवतरणों में अंतर

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01:38, 27 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण

सूरज को क्या हो गया है,
अँधेरे का लिहाफ मुख से हटाता ही नहीं है।
समय के आम्र-वृक्षों की मंजरियों में मादकता ही नहीं रही
या बेसुरा होने के भय से कोकिल गाता ही नहीं है।
अन्धेर है अन्धेर! काँच के राज्य में हीरा हवलदार है!
आज श्वानों के हाथों में शेर गिरफ्तार है।

हाय रे देश, तुम्हें क्या हो गया है!
तुम हो गये हो लाचार
ऐसा क्या खो गया है!
कल तक के युग-चारण आज गाते हैं लोरियाँ!
दिनदहाड़े ईमान कोलीलती जा रही हैं तिजोरियाँ!

राह दिखाने को व्याकुल हमारे रहनुमा
खुद ही भटक गये हैं!
पहले कदम को ही मानकर मंजिल
अटक गये हैं!

हद हो गयी! डर से सहमती हैं आँधियाँ,
डर रहे हैंतूफान
कि कहीं एक तिनका न कर देउनका अपमान।

विद्यापीठों में ऊँघते हुए विद्वान
अक्सर काट लेते हैं मूर्खों के भी कान!
किसी सुहागिन की पुरानी चूड़ियों की तरह
ताख पर उठाकर रख देते हैं ईमान!
नाम विश्वविद्यालय! सिमट आया है प्रमण्डलों-मण्डलों में
ज्ञान के अनन्त प्रकाश को
बाँधना चाहते हैं लोग कुछ दलों में।
विद्या-मंदिर को घेरे रहते हैं
राजनीति के ठेकेदार
जैसे देवालयों (पर झपट लेने को प्रसाद)
मँडराती रहती हैं चीलें बेशुमार!
कहीं-कहीं दीखता है आदमी, चारों ओर दीखती है जाति, केवल जाति!
ऑक्सीजन पर चलती हुई इन्सानियत जी रही है किसी-किसी भाँति!

जाति के सींग दिखला-दिखलाकर
डरवातेहैं एक-दूसरे इन्सान!
जैसे मकई के मोचों से बना दाढ़ी-मूँछें
एक-दूसरे को डरवाते हैं बच्चेशैतान!
कब तक जातिवाद की चक्कियों में पिसती चली जाएगी मनुष्यता।
कब तक नहीं पूजा जाएगा ऊँच-नीच, वर्ग-भेदों से उठ
मनुष्य के भीतर का देवता!
कब तक काठ के उल्लुओं पर बलिदान होती रहेगी कमलों की माला!
कब तक पीती रहेगी प्रतिभा की मीरा, अन्यायियों के हाथ से गरल
का प्याला!

जो नेता जितना छोटा है उतनी ही लम्बी है उसकी तकरीर!
जैसे स्टेशनों के समीप छोटे-छोटे बाजीगरों के समीप लगी
रहती है भारी भीड़!
बड़ा आदमी अक्सर वह कहा जाता है जिसकी छोटी होती हैं आँखें!
मगर बड़े होते हैं कान!
जो औरों से सुनकर ही किसी के व्यक्तित्व का कर लेते हैं अनुमान!
साहित्य की दुनिया में उसकी उतनी ही अकड़उतनी ही ऐंठ है,
जिसकी जितनी कम पैठ है!
कवि बनने से अधिक किसी कविता-धारा का
प्रवर्तक बनने का फैशन है,
जैसे एक-एक संस्था
एक-एक अधिवेशन है!
कविता का शीर्षक ही कविता का दर्शन है!
मूल कविता से लम्बा होता हैभूमिका का भाग!
जैसे किसी चुहिया को निगल रहा हो भारी-भरकम नाग
कराहते हैं छन्द, शब्द माँगते हैं पनाह!
लिखते हैं चार, दो करते हैं वाह-वाह!

मगर कब तक रहेगा यह अन्धेरा?
कब तक रहेगा यह अन्धेरा?
सोचता हूँ, सोच-सोचकर घबड़ा जाता हूँ!
मेरे भीतर का विश्वास मुझे और अधिक डरा जाता है;
जैसे रात का पहरुआ चीख-चीखकर
सूनापन को और अधिक भयावह बना देता है!
मेरा आत्मविश्वास निराशा के सागर में द्वाीप बन जाता है।
मेरा अभाव मुझमें नये-नयेसुरों में गाता है।

इस धरती पर आज भी शेष हैं न्याय के देवता!
जिनके लिए न कोई अपना है, न पराया!
व्यापी है जिसको न जगती की माया!
धरती के इन्सान ही होते हैं भगवान,
लेकिन उन्हें पाते हैं विरले ही भाग्यवान।
और यह सत्य है कि दिल में बसा लेने से
भगवान भगवान नहीं रह जाते हैं,
जैसे घर में बहुत दिन ठहर जाने से
मेहमान मेहमान नहीं रह जाते हैं!

मुझे विश्वास है कि सूरज का जब जगेगा तेज,
आप ही जल जाएगी अँधेरे की रजाई!
बजने लगेगी दिशा-दिशा में किरणों की शहनाई!
कोई ज्ञानी नहीं लेगा मूर्खों का चरणोदक
हंस हंस रहेगा, वक वक!
(इसीलिए),
कलम को रक्त पिलाये चल मेरे मन!
दर्द, घुटन, अभाव सबके लिए खोल दे छन्दों का दामन!
जिसका आज रूठ गया है
उसका कल हो जाएगा अपना!
कभी तो सच होगा पुरुषार्थ का सपना!
कोई न कोई पारखी कोयलों के बीच सेचुन लेगा हीरा,
कोई तो उठा लेगा अन्याय की समाप्ति का बीड़ा!
कभी न कभी होगी ही अग्नि-परीक्षा,
सत्य की सीता निकलेगी ही बेदाग!
एक न एक दिन चाँदनी बन जाएगी आग।

(17.7.69)