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♦ रचनाकार: सूरदास
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होरी तौ खेलूंगी हरि सौं, कहौ कोई श्यामसुन्दर सौं॥
आयौ बसन्त सभी बन फूले, खेतन फूली है सरसों।
मैं पीरी भई श्याम के विरह में निकसत प्राण अधर सौं॥
कहौ जाय बंशीधर सौ॥ होरी तौ.
फागुन में सब होरी खेलत हैं, अपने अपने वर सौं।
पिया के वियोग में जोगिन हुइ निकसी, धूरि उड़ावत घरसों।
चली मथुरा की डगर सों। होरी तौ.
ऊधौ जाय द्वारिका में कहियो, इतनी अरज मोरी हरिसों।
विरह-विथा से जियरा जरत है, जबसे गये हरि घर सों॥
दरश देखन को तरसों। होरी तौ.
‘सूरदास’ मोरी इतनी अरज है, कृपासिंधु गिरधर सौं।
गहरी नदिया नाव पुरानी, किमि उबरें सागर सों॥
अरज मेरी राधावर सों॥ होरी तौ.