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काले बादल भारत-नभ में
जब यवन जन्य मंडराते थे।
हे कवि-कुल कमल-दिवाकर,
तू ने तम का नाश कराये थे।
नैराशय ग्रसित भारत-वासी,
सुख-चैन नहीं जब पाते थे।
हे विश्व-विभूति तू ने ही,
सन्मार्ग इन्हें दिखलाये थे।
अज्ञान-मोह वश लोग नहीं,
आराध्यदेव जब पाते थे।
तब धीर कबीर उन्हें आकर,
निर्गुण का पाठ पढ़ाये थे।
पर रुके नहीं आँसू उनके,
रो-रो दिन-रैन बिताते थे।
हे भक्त-शिरोमणि तू ने ही,
तब सगुण रूप दिखलाये थे।
सब सगुण रूप सर्वेश राम पा,
फूले नहीं समाते थे।
पर उनके वन्दन, अर्चन हित,
वे फूल नहीं चुन पाये थे।
सब भक्त-वृन्द बेहाल बने,
जब इधर-उधर भरमाते थे।
तब ‘मानस’ वाग लगा तूने,
ही गीत ‘विनय’ के गाये थे।
काव्य जगत जब गीति काव्य के,
दर्शनहित अकुलाते थे।
तब गायक-नायक ‘गीतावलि’,
लिख तू ने साध्य पुराये थे।
पर यहाँ न कविता-कामिनी के,
शृंगार एक हो पाते थे।
तब ‘कवितावली’ की रचना कर,
उनके भी रूप बढ़ाये थे।
द्वेष-भाव के कारण जब,
मानव दानव बन जाते थे।
तब जला ज्ञान का दीप,
उन्हें तुम पावन पाठ पढ़ाये थे।
फिर धर्म, कर्म के साथ-साथ,
तुम राजनीति सिखलाये थे।
जो कुछ था सब दे-दे कर,
सुख के सागर लहराये थे।
-शीतलपुर,
9.8.1951 ई.