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चीर तम को समर्था का कोई यहाँ,
योग को जगमगाकर कोई जा रहा।
था धरा का यहां ‘राम’ व्याकुल पड़ा,
तन से, मन से बहुत खिन्न आकुल खड़ा।
काम भी कर रही शक्ति पीछे खड़ी,
योग का ध्यान उसको था होता रहा।
थक चुका था बहुत लड़ के जीवन में वह,
रोग से क्षीण, तन से औ साहस से वह।
एक संकेत पाकर ‘परम हंस’ से,
योग का ही उसे ध्यान होता रहा।
हो गयी फिर कृपा सत्यानन्द की,
ज्ञानी गुरु योग-अवतार की।
युग के अवतार की प्रेरणा पा मधुर,
अनुप्राणित सदा वह था होता रहा।
लग गया फिर शिविर योग का एक यहां,
‘आत्म-दर्शन’ का पद-तल जोक पहुंचा यहां।
हो गई फिर धरा धन्य विद्यालय की,
योग का गीत गुंजित था होता रहा।
ऊँ का जो मधुर उच्चरित स्वर मिला,
वन्दना कर गुरु की अमित बल मिला।
ध्यान ऐसा हुआ भूल तन, मन गया,
एक अनुभव नया नित्य होता रहा।
छात्र-छात्रा, अभिभावक, अध्यापक सभी,
योग की सुर-सरि में नहा के सभी।
‘आत्म-दर्शन’ - निर्देशन के आलोक से,
ज्ञान-वर्द्धन सतत सब का होता रहा।
सीखने करने अभ्यास आसन के थे,
लग गये प्राण-पण से सजग होके वे।
फिर तो छिटकी किरण दिव्य ऐसी यहां,
मार्ग-दर्शन सहज सब का होता रहा।
स्वामी ‘आत्म-दर्शन’ के दर्शन ही से,
अकलानन्द के मात्र आ जाने से।
रश्मियाँ योग की, ध्यान की, ज्ञान की,
पाके अनुप्राणित, प्रेरित जन होता रहा।
सौम्य वातावरण भव्य अब बन गया,
योग में जन मानस का मन रम गया।
चिर ऋणी हम सभी है स्वामी तेरे,
मिट गया तम सवेरा जो होता रहा।
आप अपने बने धन्य हम हो गये,
प्रेम-मुरली बजी ब्रह्म में खो गये।
शान्ति के पाठ से स्वर हरि ऊँ सुन,
पथ आलोकित नित्य होता रहा।
चीर तम को समर्था का कोई यहाँ,
योग को जगमगाकर कोई जा रहा।
-समर्था,
16.8.1983 ई.