"एक भ्रूण की आत्मकथा / रंजना जायसवाल" के अवतरणों में अंतर
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मैं माँ की कोख में पल रही
कन्या भू्रण हूँ
इसके पहले मैं ज्योति-पुंज का अंश थी
ना कोई रूप-रंग
ना लिंग-आकार
बस अन्तरिक्ष में गोल-गोल घूमा करती थी
एक दिन मैंने धरती पर खेलती नन्हीं बच्ची को देखा
और उस-सा रूप पाने को ललक पड़ी
मैंने ज्योति-पुँज से अपनी इच्छा बतायी
तो गम्भीर आवाज आयी-‘दूर के ढोल सुहावने’
पर मैं नहीं मानी
मैं जन्म लेना चाहती थी
रूप-रस-गन्ध महसूसना चाहती थी।
अपनी जिद में मैं माँ की कोख में गिर पड़ी
कोख में बहुत अँधेरा था, पर मैं खुश थी
मैं रूपाकार ले रही थी
मेरी माँ इन दिनों परेशान थी
अक्सर उल्टियाँ करती
मैं चाहकर भी उसकी पीठ नहीं सहला सकती थी
एक दिन माँ ने कच्ची अमिया खाई-‘आहा!
कित्ता अच्छा, खट्टा-खट्टा’
धीरे-धीरे मैंने नव-रसों का स्वाद चखा
अब मुझे प्रकाश पुँज की परवाह नहीं रही
मैं खुश थी
एक दिन माँ पिता के साथ अस्पताल गयी
डॉक्टर ने मशीन से मुझे देखा
फिर पिता से जाने क्या कहा
कि उनका चेहरा गुस्से से भर गया
माँ के साथ मैं भी डर गयी
घर लौटकर पिता माँ से झगड़ने लगे
मैंने कान लगाकर सुनने की कोशिश की
और जो सुनाई पड़ा उसने मुझे काठ कर दिया
पिता मेरी हत्या की बात कर रहे थे
मैं सदमें में थी
क्या यही वह धरती है, जहाँ जन्म लेने को
तरसते हैं देवता!
क्या स्त्री के रूप में जनम लेना अपराध है!
माँ रो रही थी, तड़प रही थी
पर थी तो एक स्त्री ही
नहीं होता जिसे अधिकार अपनी कोख पर भी
मैं माँ को समझाना चाहती थी-‘तुम चिन्ता न करो माँ
मैं बनूँगी तुम्हारी मुक्ति, तुम्हारी शक्ति
ऐसी कि जनना चाहेगी हर स्त्री बेटी;
पर माँ मेरी आवाज नहीं सुन रही थी
हार रही थी, टूट रही थी
मेरे पास भी दिव्य शक्ति नहीं थी।
मैं इस समय माँ के साथ एक बड़े कमरे में
‘बड़ी-सी मेज पर लेटी हूँ
इस कमरे में ढेर-सारे औजार हैं
और नाक-मुँह ढँकी नर्सें
मेरा जी घबरा रहा है
माँ के हाथ-पैरों को ऊँचा करके
बाँधा जा रहा है जैसे जिबह से पहले बकरे को
एक नर्स सुई लेकर बढ़ रही है माँ की तरफ
मैं डर के मारे आँखें बन्द कर लेती हूँ
अचानक मेरे बदन में जैसे सैकड़ों सुइयाँ
चुभने लगती हैं।
मैं दुखती हूँ माँ अचेत हो गयी है
और नुकीले औजार मेरी तरफ बढ़ रहे हैं
मैं पूरे जोर से चीखती हूँ-माँ, मुझे बचाओ!
पर माँ निष्पंद पड़ी है
मैं अकेली और इतने खतरनाक शत्रु!
मैं इधर-उधर दुबकने की कोशिश करती हूँ
पर कब तक!
सँड़सीने मेरे गले को पकड़ लिया है
हथौड़ा मेरे सिर को कुचल रहा है।
माँ की कोख में फैली मेरी जड़ों को
बेदर्दी से काटा जा रहा है
ठोस से तरल होती मैं सिसकती हूँ-
‘माँ मुझे क्षमा करना
तुम्हारा सथ न दे सकी
तुम्हारी ही तरह कमजोर निकली
तुम्हारी यह बेटी
माँ...माँ ऽ ऽ।’