भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"चप्पलें / हेमन्त कुकरेती" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हेमन्त कुकरेती |संग्रह=चाँद पर ना...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
15:41, 17 दिसम्बर 2015 के समय का अवतरण
रूठी हुई चप्पलें पैरों में चुभती हैं
और अच्छे-भले लगते आदमी की तरह
एक दिन अचानक टूट जाती हैं
चप्पलों के निश्चित इलाके़ में
नंगे पैर जाना होता है
उनकी आदिम बेडौलता को ढकते हुए
चप्पलें उन पर हावी हो जाती हैं
हमारे तलुवे कठोर होते हुए चटकने लगते हैं
चप्पलें उनसे ऊबी हुई घिसती रहती हैं
चप्पलें कभी बेकार नहीं मरतीं
इतनी शानदार होती है उनकी मृत्यु कि
हमारी गर्दन तक झुक जाती है
पैर जानते हैं कि
हर बार उनके हिस्से की ठोकर
झेलनेवाली चप्पलें
उन्हें बचाने के लिए ही
टूट गयी हैं