"मन्क़बत अमीरुलमोमिनीन / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर
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नूरे<ref>रोशनी</ref> ज़हूरे<ref>जाहिर होना</ref> ख़ालिके़<ref>बनाने वाला</ref> अकबर<ref>बड़ा</ref> को क्या लिखूं।
रूहे<ref>जान</ref> रवाने जिस्म<ref>जिस्म में बहता हुआ</ref> पयम्बर<ref>ईश्वर का संदेश लाने वाला</ref> को क्या लिखूं।
दरियाए मारिफ़त<ref>अध्यात्म, तसव्वुफ</ref> के शिनावर<ref>तैरने वाला, तैराक</ref> को क्या लिखूं।
दोनों जहाँ के गौहरे<ref>मोती</ref> अनवर<ref>बहुत अधिक चमकदार, उज्ज्वलतम</ref> को क्या लिखूं।
हैरत में हूं कि हैदरे सफ़दर<ref>फौज की सफ़, पंक्ति को फाड़ाने वाला</ref> को क्या लिखूं॥1॥
गर नूर उसका देख कहूं शम्स<ref>सूरज</ref> और क़मर<ref>चांद</ref>।
वह उसका ज़र्रा<ref>टुकड़ा, अंश</ref> नूर का वह उसका फैज़ बर<ref>अंशाशि</ref>।
तारे तो जूं सितारे हैं उस नक़्श पा<ref>पैरों के निशान</ref> उपर।
और कुतुब<ref>धु्रवतारा</ref> भी तो उससे ही क़ायम है बेख़तर।
हैरत में हूं कि हैदरे सफ़दर को क्या लिखूं॥2॥
फ़िल मिस्ल<ref>मिसाल के तौर पर</ref> गर मैं उसको कहूं रौज़ए जनां<ref>स्वर्ग का बाग</ref>।
झुकती हैं बारे इज्ज<ref>सम्मान के बोझ</ref> से जन्नत की डालियां।
और जो भला मैं खूबिये रिज़वा<ref>जन्नत का दरोगा</ref> से दूं निशां।
सो वह भी उसके बाग का अदना है वाग़बां।
हैरत में हूं कि हैदरे सफ़दर को क्या लिखूं॥3॥
और जो कहूं कि चश्मए<ref>स्रोत</ref> आबे हयात<ref>अमृत</ref> है।
या खि़ज्र<ref>एक ईश-दूत</ref> है तो यह कोई कहने की बात है।
उसके अरक़<ref>रस</ref> से जिस्म के यह क़तर जात<ref>शरीर के हिस्से</ref> है।
और उसकी उसके फ़ज्ल से यारो निजात<ref>मुक्ति</ref> है।
हैरत में हूं कि हैदरे सफ़दर को क्या लिखूं॥4॥
इस शाह के अगर लबो<ref>होंठ</ref> दनदान<ref>दांत</ref> की सफ़ा।
कहते कोई कि लालो<ref>मोती</ref> गौहर<ref>मोती</ref> हैं ये बेबेहा<ref>बहुमूल्य</ref>।
सो वह तो सदके़ होके रहा ख़ाक में गड़ा।
और यह भी हो निसार सदा आब में रहा।
हैरत में हूं कि हैदरे सफ़दर को क्या लिखूं॥5॥
शाहा<ref>बादशाह</ref> तेरी जो मदह<ref>प्रशंसा गान</ref> बनाता है अब ”नज़ीर“।
तेरे सिवा किसी का कहाता है अब ”नज़ीर“।
लेकिन कलम को हाथ लगाता है जब ”नज़ीर“।
सलवात<ref>दुरुद</ref> पढ़के यह ही सुनाता है तब ”नज़ीर“।
हैरत में हूं कि हैदरे सफ़दर को क्या लिखूं॥6॥