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"ग़फ़लत का ख़्वाब / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर

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14:34, 7 जनवरी 2016 के समय का अवतरण

जब यार ने उठाई छड़ी तब ख़बर पड़ी।
और जो ही एक बदन पै जड़ी तब ख़बर पड़ी॥
उल्फ़त की आग दिल में पड़ी तब ख़बर पड़ी।
जब आँख उस सनम से लड़ी तब ख़बर पड़ी॥
ग़फ़लत की गर्द दिल से झड़ी तब ख़बर पड़ी॥1॥

जब तक चढ़ी जवानी थी, और बाल थे सियाह।
उल्फ़त, किसी से प्यार, मुहब्बत किसी से चाह॥
आई शराब इसमें, बुढ़ापे की ख़्वाह मख़्वाह।
पहले के जाम में न हुआ कुछ, नशा तो आह॥
दिलबर ने दी जब उससे कड़ी तब ख़बर पड़ी॥2॥

थे जब तलक अधेड़ रहे तो भी बलबले।
और जब सफ़ेद होके हुए बर्फ़ के डले॥
यारों से जब तो बोले कि यारो लो हम चले।
लाये थे हम तो उम्र, पटा यां लिखा वले॥
जब स्याही पर सफे़दी चढ़ी तब ख़बर पड़ी॥3॥

डाढ़ी की जबकि रात गई और सुबह हुई।
तो भी यह दिल में खु़श थे कि मरना नहीं अभी॥
दिलबर खड़ा बजावे था, घड़ियाल उम्र की।
सुन-सुन के सुन तो होते थे पर कुछ खबर न थी॥
बाजी जब आ गजर की घड़ी तब ख़बर पड़ी॥4॥

उस हाल पर भी कुछ न हुई दीद<ref>देखना</ref> और शुनीद<ref>सुनना</ref>।
दांतों पर इसमें आन के हल-चल पड़ी शहीद<ref>तेज़</ref>॥
मुंशी क़ज़ा का लिखने लगा, जिन्स की रसीद।
डाढें लगीं उखड़ने को, दन्दां<ref>दांत</ref> हुए शहीद<ref>बलिदान</ref>॥
मजलिस में चल बचल यह पड़ी तब ख़बर पड़ी॥5॥

इस पोपले ही मुंह से लगे करने फिर निबाह।
कानों के इसमें आन के पर्दे हुए तबाह॥
गर्दन फिर इसमें हिलने लगी, कम हुई निगाह।
बिन दांत भी हंसे पे, जब आंखें चलीं तो आह॥
जब लागी आंसुओं की झड़ी तब ख़बर पड़ी॥6॥

ढाते थे वां मजूर, तो तन की महल सरा<ref>रनवास, जनानखाना</ref>।
यह घर बना रहे थे दिवालें उठा उठा॥
इसमें क़जा का राज, जो कोठे पे आ चढ़ा।
शहतीर सा जो क़द था, सो ख़म होके झुक गया॥
गिरने लगी कड़ी पे कड़ी, तब ख़बर पड़ी॥7॥

कुबड़े हुए तो जब भी न समझे यह होशियार।
यानी कि अब तो बांधिये, घोड़े पे बोझ भार॥
फिर इसमें आके सर ने लिया पांव पर क़रार।
चौगान से कमर के बना सर की गेंद मार॥
खेला जब आके गेंद तड़ी तब ख़बर पड़ी॥8॥

यह तो लगाये बैठे थे अपनी बड़ी दुकान।
थे गर्क़ लेन देन में और कुछ न था ध्यान॥
लेखा जब इसमें उम्र का ड्योढा हुआ जब आन।
कुप्पा जो लुट चला न हुआ तब भी कुछ ज्ञान॥
जब लुट गई धड़ी की धड़ी तब ख़बर पड़ी॥9॥

बिस्तर पे जब तो आन पड़े, लौट कर निढाल।
उठने दे कौन? आह! जो करवट हुआ मुहाल<ref>मुश्किल</ref>॥
होने लगी फ़रिश्तों से नज़रों में कीलोक़ाल<ref>वाद-विवाद</ref>।
जी ग़श में डूबा तो भी न था कूच का ख़याल॥
जब सांस आ गले में अड़ी, तब ख़बर पड़ी॥10॥

छाती पे चढ़ क़ज़ा ने लिया, जब गले को घूंट।
पानी का फिर तो आह, न उतरा गले से घूंट॥
उखड़ी बदन से जान भी रग-रग से छूट-छूट।
पंजा दिखाया शेर ने तो भी यह समझे झूट॥
जब चाब ली गले की नड़ी तब ख़बर पड़ी॥11॥

कांधे पै रख पालकी ले आए जब कहार।
और गुल मचाके बोले कि जल्दी से हो सवार॥
इसमें नहाके आप भी, जल्दी हुए तैयार।
कपड़े बदल के इत्र लगा, पहन फूल हार॥
निकली सवारी धूम पड़ी तब ख़बर पड़ी॥12॥

जब पालकी में चढ़ के चला आपका बदन।
कलमा नक़ीब<ref>आगे-आगे आवाज़ लगाने वाले</ref> पढ़ते चले साथ, कर फबन॥
तो भी यह कहते थे हुआ कौन बेवतन?।
जब आये उस गढ़े में ”नज़ीर“ और हज़ार मन॥
ऊपर से आके ख़ाक़ पड़ी, तब ख़बर पड़ी॥13॥

शब्दार्थ
<references/>