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"दुनियाँ के तमाशे / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर

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14:45, 7 जनवरी 2016 के समय का अवतरण

खोल टुक चश्मे तमाशा, यार बाशे फिर कहां।
यह शिकारो सैद, यह शिकरे व बाशे फिर कहां।
माल दौलत, सोना, रूपा, तोले माशे फिर कहां।
दम ग़नीमत है, भला, यह बूदोबाशे फिर कहां।
देख ले दुनियाँ को गाफ़िल यह तमाशे फिर कहां॥

दिल लगा उल्फ़त में, और कर ले परीज़ादों की चाह।
चांद से मुखड़ों से मिल, सूरजवशों पर कर निगाह।
कुछ मजे, कुछ लूट हज, यह वक़्त कब मिलता है, आह।
खाले पीले, सुख दे, और देले दिलाले, वाह वाह।
देख ले दुनियाँ को गाफ़िल यह तमाशे फिर कहां॥

हुस्न वालों के भी क्या-क्या हुस्न के आलम हैं यां।
सांवले गोरे, सुनहरी, सुर्ख बांधे पगड़ियां।
क्या सजें, क्या-क्या धजें, क्या नाज़ क्या छब तख़्तियां।
भोली भोली सूरतें, और प्यारी प्यारी अंखड़ियां।
देख ले दुनियाँ को गाफ़िल यह तमाशे फिर कहां॥

सुबह हो तो सैर कर, बासों की जाकर बाफ़िराक़।
बुलबुलें चहकें हैं, और गुल खिल रहे हैं मिस्ल बाग़।
शाम हो तो रोशनी को देख, पी मै<ref>शराब</ref> के अयाग़।
जल रहे हैं झाड़ों मशजल<ref>मशाल</ref> शम्मा कंदीलो चिराग़।
देख ले दुनियाँ को गाफ़िल यह तमाशे फिर कहां॥

कितने मैख़ानों के दर पर लोटते हैं पी के मै।
कितने मजलिस करके सुनते हैं दफ़ो<ref>ढफ</ref> मरदंगो नै।
दैरों<ref>मंदिर, गिरिजा</ref> में और मस्जिदों में करते हैं गुल<ref>शोर</ref> पै ब पै<ref>बार-बार</ref>।
हर तरफ़ धूमें मची हैं, दीद<ref>दर्शन</ref> है और सैर है।
देख ले दुनियाँ को गाफ़िल यह तमाशे फिर कहां॥

कितने दिल हैं मुत्तफ़िक़<ref>एक राय, सहमत</ref>, कितने दिलों में फूट है।
दोस्ती है दुश्मनी है, ज़िद है मारा कूट है।
प्यार है, हंस बैठना है, और जुगत और झूट है।
अद्ल<ref>न्याय</ref> है और जुल्म है, ग़ारत है लूटा लूट है।
देख ले दुनियाँ को गाफ़िल यह तमाशे फिर कहां॥

वाह वा! क्या-क्या ”नज़ीर“ इस ख़ल्क के अतवार हैं।
ख़्वार हैं, सरदार हैं, जरदार हैं, लाचार हैं।
गुजरियां हैं, चौक हैं, बसते कई बाजार हैं।
दश्त हैं, सहरा हैं, और दरिया हैं और कोहसार हैं।
देख ले दुनियाँ को गाफ़िल यह तमाशे फिर कहां॥

शब्दार्थ
<references/>