"लूली पीर (बूढ़ी वेश्या) / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर
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$ $ जो $ $ $ कोई हो जाती है बुढ़िया<ref>कुल्लियातों में $ $ $ चिह्न वाले स्थान खाली छूटे हुए हैं। अश्लीलता सूचक शब्दों को अन्य पद्यों में भी इसी भांति छोड़ दिया गया है।</ref>।
फिर जान कहलाने से यह शरमाती है बुढ़िया॥
हर काम में हर बात में शरमाती है बुढ़िया।
दिन रात इसी सोच में ग़म खाती है बुढ़िया॥
सर धुनती है, उकसाती है, घबराती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥1॥
जब पेट मलाई सा वह देता था दिखाई।
खाने को चली आती थी मिश्री व मलाई॥
और आके बुढ़ापे की हुई जबकि चढ़ाई।
सब उड़ गई काफ़िर, वह मलाई व मिठाई॥
इस ग़म से न पीती है, न कुछ खाती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥2॥
वह हुस्न कहां जिस से कोई पास बिठावे।
छाती वह कहां जिसपे कोई हाथ चलावे॥
जब सूख गया मुंह तो झमक ख़ाक दिखावे।
आशिक़ तो जवां काहे को फिर नाज़ उठावे॥
बूढ़े को भी हरगिज़ नहीं खुश आती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥3॥
जब मुंह में न हो दांत तो मिस्सी मले क्या ख़ाक।
और सर के झड़े बाल तो कंधी करे क्या ख़ाक॥
पलकों में सफ़ेदी हो तो काजल लगे क्या ख़ाक।
जब नाक ही सूखी हो तो फिर नथ खुले क्या ख़ाक<ref>तबायफ़ों में यह रिवाज है कि जवान लड़की की नथ किसी सम्पत्तिशाली प्रेमी द्वारा खुलवाई जाती है। वह नथ खोलने की रस्म अदा करने के बदले में लड़की को खूब धन दौलत देता है।</ref>॥
इस ख़्वारी, ख़राबी में फिर आ जाती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥4॥
जब तक कि नई उम्र थी चढ़ती थी जवानी।
हर कोई यह कहता था ‘कहां जाती हौ जानी’॥
जब बूढ़ी हुई फिर लगीं कहलाने पुरानी।
ठहरी कहीं ‘खाला’ कहीं ‘दादी’ कहीं ‘नानी’॥
हैं नाम तो अच्छे यह कि शरमाती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥5॥
बुढ़िया को बुढ़ापे में यह दुख होता है लेना।
नोची<ref>नवयुवती</ref> को किसी ढब की नसीहत हो जो देना॥
मुंह पीट वह हमसाये से कहती है कि भैना।
नाहक़ की लड़ाई है, न लेना है न देना॥
एक चार घड़ी से मुझे पुनवाती<ref>गालियाँ सुनवाना</ref> है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥6॥
टुक देखियो! यारो! यह बुढ़ापे की है ख़्वारी।
हमसाये के सुनते ही लगी दिल में कटारी॥
नोची की तरफ़दार हो घर में से पुकारी।
क्या बात हुई तुझ से वह कुछ मुझको बतारी॥
जिस बात पे दोपहर से टर्राती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥7॥
सह कहती है ‘भैना’ यह गुजरती नहीं ढड्डो।
और क़हर खु़दा से भी यह डरती नहीं ढड्डो॥
लब अपने ज़रा बंद यह करती नहीं ढड्डो॥
इस हाल को आखि़र को पहुंच जाती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥8॥
ऐसा जो मेरे पास लगे जायगी झांपो।
एक रोज़ मुझे घर से निकलवायेगी झांपो॥
सब खा चुकी मुझको भी यह अब खायेगी झांपो।
वह कौन सा दिन होगा जो मर जायेगी झांपो॥
अब तो मुझे डायन सी नज़र आती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥9॥
नोची जो वफ़ादार कोई पास रही आ।
तो रोटी मिली वर्ना लगी कातने चरखा॥
जब कुबड़ी कमर हो गई और सर हुआ गाला।
मुंह सूख के चमरख़ हुआ और तन हुआ तकला॥
फिर रोटी को चरखे़ से कमा खाती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥10॥
क्या वक़्त बुढ़ापे का बुरा होता है ‘वल्लाह’।
बेगाने तो क्या अपने को फिर होती नहीं चाह॥
इस ख़्वार ख़राबी से भी सह कर ग़मे जांकाह।
रुक-रुक के जवानी की मुसीबत में ‘नज़ीर’ आह॥
आखि़र को इसी सोच में मर जाती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥11॥