"होली-4 / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी |संग्रह=नज़ीर ग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
13:32, 19 जनवरी 2016 के समय का अवतरण
मियां तू हमसे न रख कुछ गुबार<ref>मनोमालिन्य</ref> होली में।
कि रूठे मिलते हैं आपस में यार होली में।
मची है रंग की कैसी बहार होली में।
हुआ है ज़ोरे चमन आश्कार<ref>प्रकट</ref> होली में।
अजब यह हिन्द की देखी बहार होली में॥1॥
अब इस महीने में पहुंची हैं यां तलक यह चाल।
फ़लक<ref>आकाश</ref> का जामा पहन सुखऱ्ी शफ़क़<ref>उषा, शाम की लाली</ref> से लाल।
बनाके चांद और सूरज के आस्मा पर थाल।
फरिश्ते<ref>ईश्वर के दूत</ref> खेले हैं होली बना अबीरो गुलाल।
तो आदमी का भला क्या शुमार होली में॥2॥
सुनाके होली जो जहरा बजाती है तंबूर।
तो उसके राग से बारह बरूज हैं मामूर।
छओं सितारों के ऊपर पड़ा है रंग का नूर।
सभों के सर पै हरदम पुकारती हैं हूर।
कि रंग से कोई मत कीजो आर होली में॥3॥
जो घिर के अब्र कभी इस मजे़ में आता है।
तो बादलों में वह क्या-क्या ही रंग लाता है।
खुशी से राँद भी ढोलक की गत लगाता है।
हवा की होलियां गा-गा के क्या नचाता है।
तमाम रंग से पुर है बहार होली में॥4॥
चमन में देखो तो दिन रात होली रहती है।
शराब नाब<ref>खालिस, निर्मल</ref> की गुलशन<ref>वाटिका, बाग़</ref> में नहर बहती है।
नसीम<ref>ठंडी और धीमी हवा</ref> प्यार से गंुचे<ref>कली</ref> का हाथ गहती है।
और बाग़वान<ref>माली</ref> से बुलबुल खड़ी यह कहती है।
न छेड़ मुझको तू ऐ बदशिआर<ref>दुष्प्रकृति वाले</ref> होली में॥5॥
गुलों<ref>फूल</ref> ने पहने हैं क्या क्या ही जोड़े रंग-बिरंग।
कि जैसे लड़के यह माशूक पहनते हैं तंग।
हवा से पत्तों के बजते हैं ताल और मरदंग।
तमाम बाग़ में खेले हैं होली गुल के संग।
अजब तरह की मची है बहार होली में॥6॥
मजे़ की होती है होली भी राव राजों के यां।
कई महीनों से होता है फाग का सामां।
महकती होलियां गाती हैं गायनें खड़ियां।
गुलाल अबीर भी छाया है दर ज़मीनों ज़मां।
चहार तरफ़ है रंगों की मार होली में॥7॥
अमीर जितने हैं सब अपने घर में है खु़शहाल।
क़ब़ाऐं<ref>दोहरा लंबा अंगरखा, चोग़ा</ref> पहने हुए तंग तंग गुल की मिसाल<ref>समान</ref>।
बनाके गहरी तरह हौज़ मिल के सब फिलहाल।
मचाते होलियां आपस में ले अबीरो गुलाल।
बने हैं रंग से रंगी निगार<ref>प्रेम पात्र, महबूब</ref> होली में॥8॥
यह सैर होली की हमने तो ब्रज में देखी।
कहीं न होवेगी इस लुत्फ़ की मियां होली।
कोई तो डूबा है दामन<ref>अंचल</ref> से लेके ता चोली।
कोई तो मुरली बजाता है कह ‘कन्हैयाजी’।
है धूमधाम यह बेइख़्तियार<ref>बेतहाशा, अत्यधिक</ref> होली में॥9॥
घरों से सांवरी और गौरियां निकल चलियां।
कुसंुभी ओढ़नी और मस्ती करती अचपलियां।
जिधर को देखें उधर मच रही है रंगरलियां।
तमाम ब्रज की परियों से भर रही गलियां।
मज़ा है, सैर है, दर हर किनार<ref>अलग</ref> होली में॥10॥
जो कोई हुस्न की मदमाती गोरी है वाली।
तो उसके चेहरे से चमके हैं रंग की लाली।
कोई तो दौड़ती फिरती है मस्त रुखवाली।
किसी की कुर्ती भी अंगिया भी रंग से रंग डाली।
किसी को ऐश<ref>भोग विलास</ref> सिवा कुछ न कार<ref>कार्य</ref> होली में॥11॥
जो कुछ कहाती है अबला बहुत पियाप्यारी।
चली है अपने पिया पास लेके पिचकारी।
गुलाल देख के फिर छाती खोल दी सारी।
पिया की छाती से लगती वह चाव की मारी।
न ताब<ref>शक्ति</ref> दिल को रही ने क़रार<ref>सान्त्वना</ref> होली में॥12॥
जो कोई स्यानी है उनमें तो कोई है नाकंद<ref>नादान</ref>।
वह शोर बोर थी सब रंग से निपट यक चंद।
कोई दिलाती है साथिन को यार की सौगंद।
कि अब तो जामा व अंगिया के टूटे हैं सब बंद।
‘फिर आके खेलेंगे होकर दो चार होली में॥13॥
कोई तो शर्म से घूंघट में सैन करती है।
और अपने यार के नैनों में नैन करती है।
कोई तो दोनों की बातों को गै़न करती है।
कोई निगाहों में आशिक़ को चैन करती है।
ग़रज तमाशे हैं होते हज़ार होली में॥14॥
‘नज़ीर’ होली का मौसम जो जग में आता है।
वह ऐसा कौन है होली नहीं मनाता है।
कोई तो रंग छिड़कता है कोई गाता है।
जो ख़ाली रहता है वह देखने को जात है।
जो ऐश चाहो सो मिलता है यार होली में॥15॥