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"कंस का मेला / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर

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13:46, 19 जनवरी 2016 के समय का अवतरण

जो हो कहीं तमाशा वह देखना बजा है।
ख़ूबी का देख लेना, हर तौर पर बजा है॥
अम्बोह<ref>भीड़</ref> खु़श दिली का हर आन दिलकुशा<ref>रमणीक, दिल को आनन्द देने वाला</ref> है।
जो सैर हो खु़शी की, वह देखनी रवा<ref>उचित</ref> है॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥1॥

आते हैं लोग जिस दम कपड़े बदल-बदल कर।
बाज़ार में फ़राहम<ref>एकत्र, इकट्ठा</ref> होते हैं घर से चलकर।
गाते हैं कितने होली, क्या-क्या संभल-संभल कर।
कितने हैं डफ़ बजाते, हर दम उछल-उछल कर॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥2॥

बोली में अपनी कितने कुछ-कुछ हैं गीत गाते।
कुछ कूद-कूद लम्बे हाथों को हैं बढ़ाते॥
चकफेरियों से कितने हैं मोरछल हिलाते।
हरदम हंसी खु़शी से फूले नहीं समाते॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥3॥

कुछ स्वांग अच्छे-अच्छे हैं हर तरफ़ से बाते।
गहने झमकते उनके, और रूप जगमगाते॥
कुछ होलियां खुशी से हैं साथ उनके गाते।
मृदंग ताल, तबले मिल-मिल के हैं बजाते।
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥4॥

कुछ हैं दुकां में खुशदिल, कुछ बैठकों में हंसते।
अम्बोह कोठे-कोठे और भीड़ छज्जे-छज्जे॥
बाज़ार में खुशी के होते हैं जब यह नक्शे।
हर सू<ref>ओर, तरफ</ref> हुजूम लोगों के ठठ हैं लगते॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥5॥

यह ठाठ हर तरफ़ को हैं आन कर झलकते।
घिच-पिच यह कुछ कि जिससे हैं हर क़दम ठिठकते॥
आशिक निगाहें भर-भर महबूबों को हैं तकते।
देखो जिधर, उधर को हैं हुस्न के झमकते॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥6॥

होकर सवार इसमें निकले हैं जब कन्हैया।
होता है फिर तो ज़ाहिर नक़्शा अजब तरह का॥
हौदे में बैठ जाते हैं, सर पर मुकुट झलकता।
होते हैं शोर हर दम जय बोलने के क्या-क्या॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥7॥

निकले हैं आके जिमदम श्रीकिशन, मुकुट धारी।
मोहन, गुपाल, नंदन, प्रभु, नवल बिहारी॥
जाती हैं झाकियों में जब उनकी छबि निहारी।
जै हर क़दम पे क्या-क्या बोले हैं बारी-बारी॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥8॥

हैं साथ में जो उनके बनकर सवार चलते।
बाजों के शोरगुल से घोड़े भी हैं उछलते॥
दोनों तरफ़ रुपहले क्या-क्या चंवर हैं झलते।
यों दर्शन अपना देते हैं मुरलीधर निकलते॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥9॥

माथे मुकुट विराजे, मुखड़े पै छूटीं अलकें।
रूप और सरूप ऐसा, जो देख झुकें पलकें॥
पोशाक जगमगाती, कुंदन की जैसे ढलकें।
आती हैं हर तरफ़ से क्या-क्या मुकुट की झलकें॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥10॥

होता है ठाठ यां तो मौजूद इस निमत का।
अब वां की बात सुनिए रुकते हैं कंस जिस जा॥
तन कंस का भी चकला क़द भी बहुत बड़ा सा।
तेगो सिपर<ref>चने का हरा पौधा, दाना</ref> संभाले टीले पै रखते हैं ला॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥11॥

होते हैं गिर्द उसके लोगों के ठठ जो आकर।
कुछ बैठते, कुछ उठते, फिरते हैं इधर उधर॥
पैकार भी हैं फिरते, सब खोमचों को भर कर।
गट्टे, गंडेली, मेवे, फल, बूट<ref>चने का हरा पौधा, दाना</ref> बेल, गाजर॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥12॥

हैं पान भी मुहैया, और हार भी गलों के।
हुक़्के़ भी जा ब़जा हैं, और आब के कटोरे॥
सुर्मा भी लाते हर जा, और ताड़ के पपैये<ref>ताड़ के पत्ते को गोल मोड़ कर बनाया हुआ बच्चों का मुंह से बजाने का बाजा</ref>।
खूंबां के साथ हर दम हैं इश्क़बाज़ फिरते॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥13॥

फिरते हैं एक तरफ़ को महबूब भी रंगीले।
चीरे सुनहरे बांधे, या सुर्ख, या कि पीले॥
कुछ नाज़ के सजीले, कुछ आन के हठीले।
क्या-क्या बहार उस दम होती है टीले-टीले॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥14॥

कहता है कोई ”प्यारे! ईधर निगाह कीजै“।
कहता है कोई ”ऐ जां! दुश्नाम<ref>गाली</ref> हंस के दीजै“॥
कहता है कोई ”हुक़्क़ा हाथों से मेरे पीजै“।
कहता है कोई ”जो कुछ दरकार हो सो कीजै“॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥15॥

क्या-क्या हंसी-खुशी की होती हैं बातें हर जा।
ठहरा है हर तरफ को ऐशो तरब का चर्चा॥
कुछ हैं खिलौने बिकते, कुछ हो रहा तमाशा।
क्या-क्या हुजूम, क्या-क्या होते हैं ठठ अहा हा॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥16॥

फिर उसमें जब कन्हैया हैं, इक तरफ़ को आते।
और एक छड़ी उठाकर हैं कंस को गिराते॥
लोग उस घड़ी का नक़्शा जिस दम हैं देख पाते।
क्या-क्या ”नज़ीर“ उस दम है शोरो-गुल मचाते॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥17॥

शब्दार्थ
<references/>