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"बेचारी नारी / पल्लवी मिश्रा" के अवतरणों में अंतर

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परिस्थितियों की मारी!
है कितनी बेचारी!
”नारी“
जन्म लेते ही उसे
बगीचे में
कैकटस की संज्ञा मिली
फूल सींचते-सींचते
दयाभाव से माली
कभी उसे भी जल से भिगो देते
इस तरह जैसे-तैसे
वह बन सकी
एक कली
अधखिली
फिर बड़ी निर्ममता से
माली द्वारा तोड़कर फेंक दी गयी
अपनी किस्मत से
कभी गिरी किसी राजमुकुट पर
सुशोभित हुई
परन्तु पहचान उतनी ही मिली
जितनी राजमुकुट को
राजा के बिना
जो है अस्तित्वहीन
उसकी सुगन्ध भी
राजमुकुट के ढेरों पुष्पों की सुगन्ध में
हो गयी विलीन;
कभी गिरी
किसी ऐयाश की माला में
जिसने उसे
सूँघा/मसला/कुचला
फिर भी इसका उसे
न कभी मलाल हुआ, न गिला;
कभी गिरी
किसी शौकीन की झोली में
जिसने उसे गुलदस्ते में
सजा तो दिया
मगर उसके अस्तित्व की रक्षा के लिए
थोड़े जल का भी
बन्दोबस्त नहीं किया।
इस तरह
दूसरे का घर सजाने में,
महकाने में
उसका सारा जीवन बीता-
और सुगन्ध उँड़ेलते-उँड़ेलते
एक दिन
उसका ही पात्र हो गया रीता-
फिर भी
किसी ने आँसू न बहाए-
न उसके घाव सहलाए-
अपने-अपने हित के लिए
उसकी जरूरत
सभी को रही
मगर उसकी अहमियत
किसी ने नहीं स्वीकारी
इसलिए तो
सदियों के बाद
आज भी
परिस्थितियों की मारी!
है कितनी बेचारी!
नारी!!!