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12:00, 8 फ़रवरी 2016 के समय का अवतरण
हम आज यहाँ कल होंगे वहाँ,
दुनिया की रीत पुरानी है।
न चाँद है थिर, न धरती थिर;
हमें वही कथा दुहरानी है।
सागर की उछती लहरें हों,
या दरिया का बहता निर्मल जल;
चलना ही जीवन की धारा
सन्देश यही देता है पल-पल।
है गति जहाँ है प्राण वहीं,
रुकना मृत्यु की छाया है।
मिट्टी में इक दिन मिल जाएगी,
मिट्टी से निर्मित काया है।
जब तक लक्ष्य मिले न राही,
तब तक तो चलना ही होगा;
दूर अँधेरा करना है तो
दीपक सा जलना ही होगा।
इसीलिए हे मानवमात्र!
सोच समझ करना विश्राम;
ऐसा न हो सूरज के रहते
हो जाए जीवन की शाम।