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जब उग आते हैं
सम्बन्धों के बीच
कँटीले कैकटस-
जिन्हें उखाड़ फेंकने का
होता नहीं किसी में साहस-
मगर रहती है
कँटीले रास्तों पर भी
साथ चलने की मजबूरी-
तो आ जाती है
खुद-ब-खुद
कदमों के दरम्याँ
समानान्तर सी एक दूरी-
ऐसी दूरी
जो न बढ़ती है,
न घटती है-
सुना है
अनन्त के उसपार कहीं सिमटती है-
यदा-कदा
जब काँटों से हो जाते हैं
किसी एक के पाँव लहुलुहान-
दूसरा रहता है
जख्मों की टीस से
निर्लिप्त, संवेदनहीन, अनजान-
एक की पीड़ा
दूसरे की अन्तरतम को
कहाँ छती है?
क्या हर साथ चलने वाले
मुसाफिर की
यही नियति है?