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12:06, 8 फ़रवरी 2016 के समय का अवतरण
मेरी जिन्दगी में बस तन्हाई है;
आज यही मेरे जीवन की सच्चाई है।
सफर के आगाज में
मेरे साथ था इक काफिला-
हर मोड़ पर कुछ छूट गए
न खत्म हुआ ये सिलसिला-
किसी और को तो छोड़िए
वो जो उम्र भर का था हमसफर-
जाने किस गली में मुड़ गया?
मैं चलती रही बेखबर-
अचानक जो देखा मुड़कर मैंने
कहीं कोई भी न साथ था-
न कदम से कोई कदम मिला
न हाथों में किसी का हाथ था-
मैं हैरान थी, परेशान थी-
क्यों तन्हा मुझे वह छोड़ गया?
मेरी साँसें जिसके नाम थीं-
क्यों मुझसे मुँह वह मोड़ गया?
मेरी मंजिल की राह अलग सही
मुझे वापस कदम बढ़ाना होगा-
जिस गली से वह बिछड़ गया
उस गली मुझे ही जाना होगा।