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"रचनात्मक वेदना / निदा नवाज़" के अवतरणों में अंतर

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12:53, 12 फ़रवरी 2016 के समय का अवतरण

गहरा जाती है ख़ामोशी
मेरे बाहरी व्यक्तित्व पर
मेरी जीभ पर
चढ़ जाते हैं चुप्पी के ताले
सूंघ जता है मुझे
अचानक कोई
काला भूरा सांप
धीरे-धीरे मेरे भीतर
जल उठती है एक मशाल
फड़फड़ाने लगते हैं
मेरे विचारों के सारे कबूतर
देखते ही देखते भरते हैं वे
ऊँची उड़ान
मेरे भीतरी ब्रम्हाण्ड के
सभी आसमानों पर
(रौशन होजाता है
मेरा विवेक संसार)
मेरे भीतर बदलने लगते हैं
बहुत से मौसम
होती है कहीं पर भरी वर्षा
और कहीं खिल उठती धूप
कहीं पर सागर ठाठें मारे
और कहीं बिछ जाती रेत
कहीं ग्रीष्म की गर्मी पिघलाए
कहीं जम जाए बर्फ़ की सिल
कहीं कोई नाग डंस ले मुझको
कहीं दहाड़े बबर शेर
कसी मरघट पर कहीं
बोलते हैं बहुत सारे उल्लू
लटक जाते हैं कहीं
मेरे भीतर
मेरे बचपन की यादों पर खड़े
किसी भूतिया पेड़ पर
बहुत से चमगादड़
कहीं कोई हिरण
भर रही है कुलाचें
कहीं गाती है कोई
कोयल गीत
कहीं किसी भीतरी क़तलगाह में
मुझे दी जाती हैं
संसार भर की सभी मौतें
एक साथ
कहीं मेरे रिश्तों के
सूखे खलिहान में
लग जाती है भयंकर आग
(वे कुतरना चाहते हैं
मेरे एक एक कबूतर का पंख )
कहीं मेरे सामने खड़ा होजाता है
वही कंकाल आदमी
झुर्रियों की जकड़न झेलता
उसकी अधजली चमड़ी पर
भिनभिनाती हैं मक्खियाँ
उसकी उदास नज़र
छेदती है मेरी आत्मा
मेरे भीतर जन्म लेता है
जैसे कोई मसीहा, सुकरात
मार्क्स, लेनिन
जैसे मैं खड़ा हो जता हूँ
अर्ब के किसी
रेगिस्तानी टीली पर
एथेन्ज की गलियों में
लेनिनग्राद के बिलकुल सामने
कहीं मैं टहलने लगता हूँ
अतीत के किसी गलियारे में
मुझे याद आती है
मीफि़या मंत्री की गाली
फौजी का चांटा
आतंकवादी की हिट-लिस्ट
मेरे देश के लोकतंत्र पर से
जैसे गुज़र जाते हैं हज़ारों हाथी
संविधान के पन्नों पर
मुझे दिखते हैं रेंगते दीमक
मेरी भीतरी चौखट पर
लेता है आख़री हिचकी
आतंकवादी का काल्पनिक ईश्वर
बाहरी चुप्पी
और भीतरी हलचल के बीच
किसी सोनामी की तरह
रास्ता निकालती है
मेरी रचना
मेरे सारे कबूतर
लोट आते हैं वापस
छुप जाते हैं
मेरी बौद्धिक कोशिकाओं में
और एक ऊँची उड़ान
भरने के लिए
आने वाले करोड़ों वर्षों पर फ़ैले
बहुत सारे आसमानों पर.