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सैंतीसवें जन्म दिवस पर
मनसिज का ताल
हँसते-गाते लो बीत गये इस जीवन के सैंतीस साल
उस रोज अचानक वीणा के तारों में थिरक उठा कंपन
कोटर के तिनकों में थिरका असमय कोकिल का कल-कूजन
ताका कलियों ने फूलों ने झिझकी आँखों से बार-बार
ऋतुपति ने मलयज-अंजलि से जी भर बरसाये हरसिंगार
चौंका अम्बर, ठिठके बादल, धरती पर कौंधी रूप-ज्वाल
हँसते-गाते लो बीत गये इस जीवन के सैंतीस साल
झुक गई किरण कवि-चरणों में घुटनों के बल जब ‘चाँद’ चला
बन्दन में हाथ जुड़े रवि के, स्वागत में शशि का दीप जला
मेरे किशोर कवि पर अल्हड़ मलयानिल विजन डुलाता था
यौवन चमके से मिलने को तारों की छाँह बुलाता था
आलिंगन को फैलाता था अम्बर अनगिन बाहें विशाल
हँसते-गाते लो बीत गये इस जीवन के सैंतीस साल
हँसते गाते जब जीवन ने तय कर ली थी आधी मंजिल
यौवन के अल्हड़ झोंकों से मनसिज का ताल बना ऊर्मिल
पल भर को आँखों में चमकी उल्लास-हास की किरण एक
पड़ गया किन्तु क्षण में उस पर झीना, उजला आवरण एक
आँखों की राह उमड़ फूटा अन्तर के आतप का उबाल
हँसते-गाते लो बीत गये इस जीवन के सैंतीस साल
जीवन की भूल भुलैया में जो कुछ पाया था, सब खोया
चाँदी के चकमक पत्थर पर सिर मारा, पछताया, रोया
रोजी-रोटी के चरणों पर कर दी न्यौछावर किलकारी
दब गई राख की ढेरी में प्रतिभा की नन्हीं चिनगारी
है कसक यही छवि के पथ पर मैं जल न सका बनकर मशाल
रोते-गाते यों बीत गये कवि-जीवन के सैंतीस साल
-धनतेरस
1956