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प्रिय-विहीन, सुनसान, असुन्दर यह अपना ही घर लगता है
गली-मुहल्ले सूने-सूने औ’ वीरान शहर लगता है
रुन-झुन की धुन सुन न पा रहा
आँगन लगता रोया-रोया
दीवारें उदास लगती हैं
केलि-कक्ष भी खोया-खोया
नहीं सुहाता है जीवन की छवि-वीणा का डुंग-डुंग बजना
फूलों की पंखुरियों का स्वर पतझर की मर्मर लगता है
छाया-सी जो साथ लगी थी
नख-शिख प्रिय के प्रेम पगी थी
इतने बड़े विश्व में केवल
जो अपनी थी और सगी थी
उसके क्षणिक विरह ने पीड़ा को शाश्वत यौवन दे डाला
रवि-आतप की बात न पूछो, चन्द्र-प्रकाश प्रखर लगता है
सुख-दुख के हिचकोले खाते
बीती इतनी बड़ी उमरिया
तार-तार कर दी दुनिया ने
मेरे मन की लाल चुनरिया
अपनी ही साँसों की धुन सुन-सुन मैं चौंक-चौंक उठता हूँ
दुर्दिन में अपनी ही छाया से अपने को डर लगता है
-आकाशवाणी के पटना केंद्र से प्रसारित
2.8.1975