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"आत्मा का व्योम / विमल राजस्थानी" के अवतरणों में अंतर

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देख लें सारे सुधी जन
खुली पुस्तक-सा विमल-मन
डाह, ईर्षा द्वेष के शत-शत खड़े कर शैल काले
लाख नर्तित कवि-चरण में कुटिल जग जंजीर डाले
धूलि-कण बन लिपट जायेंगे चरण से अन्ततः सब
रुकेगा रोके नहीं यह तीव्र प्रतिभा का प्रभंजन
देख लें सारे सुधी-जन
खुली पुस्तक-सा विमल-मन

युग-युगों की साधना पूरी हुई, जो थी अधूरी
रक्त-रंजित पद हुए तब निकटता में ढ़ली दूरी
व्यंग-वाणों से हृदय छलनी बना, दुख-भार झेले
युग-युगों तक बिंधे मन के करुण हाहाकार झेले
ठेस लग-लग कर हृदय का चूर होता रहा दर्पण
तब कहीं पाये नयन ने पारदर्शी अश्रु के कण

मुक्त पलकों नील नयनी झील जीवन भर उलीची
नयन-झारी से भुवन की चिर तृषित मरु-भूमि सींची
मोतियों की झालरों के द्वार वंदनवार बाँधे
मृत्यु का शव रहा ढ़ोता मैं विकल मन युग्म काँधे
लग न जाये आग पानी में, कला को काल लीले
इसलिये जलता रहा खुद, नयन में पाले सघन घन

चाहता हूँ विश्व मेरे दर्द को अपना समझ ले
जलन जी की झेल, क्या होता तनिक तपना समझ ले
यदि यही अपराध मेरा, मैं इसे हरदम करूँगा
तेवरों से डाहियों के यदि तनिक-सा भी डरूँगा

कफन लेगी डाल तन पर कला कलुषित कालिमा का
आत्मा का व्योम तम बन जायगा काली अमा का
कौन बालेगा नयन के दीप अन्तर-भारती के
कौन लायेगा सुधा कर क्षीर काव्योदधि-बिलोड़न

डाह, ईर्षा, द्वेष के शत नाग डँस कर क्या करेंगे?
अमृत जिसके कंठ उसको डँस मरण ही तो वरेंगे
स्नेह-वर्षण से नमित होंगे तने-फुँफकारते फन
अश्रु पश्चाताप के मेरी खुली अंजलि भरेंगे
सत्य-शिव-सौन्दर्य युत जब स्वस्थ स्पर्धा जगेगी
सार्थकहोंगे उसी क्षण मलयवाही बीन के स्वन
देख लें सारे सुधी जन
खुली पुस्तक-सा विमल मन

-दीपोत्सव
1974