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"विज्ञान और कवि / विमल राजस्थानी" के अवतरणों में अंतर

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विज्ञान! तुम्हारी ज्वाला में दुनिया के जलने से पहले
कोमलता होगी विदा कहीं, कवि का संसार नहीं होगा
तुम जन्म रौंदते आते हो
तुम मरण लुटाते जाते हो
छवि की इस मोहक नगरी में
तुम हँस-हँस आग लगाते हो

हैं प्राण तुम्हारे बसे हुए
बारूद और चिनगारी में
मैंने तो पहले ही सोचा-
था यह कि तुम्हारी बारी में-

तरकश में तीर नहीं होंगे, कर में तलवार नहीं होगी
होगा ‘एटम’ का छल केवल, बल का हुँकार नहीं होगा
आँखों के आगे आती है
हर रोज मरण-तस्वीर नयी
हर रोज फेंकते हो जग पर
ज्वालाओं को जंजीर नयी

तुम जला रहे फूलों-सा तन
तुम जला रहे तितली-सा मन
होंगे प्रस्फुटित प्रदाहों में-
जब चिंतन के अंगार-सुमन

होगा वह रक्त-पर्व का दिन, मंगल त्यौहार नहीं होगा
आँखों में अश्रु नहीं होंगे, अन्तर में प्यार नहीं होगा

मरघट बन रही आज दुनिया
सुख-सौन्दर्यों की चिता जली
जल रहे कुंज, जल रहे पात
जल रहे फूल, जल रही कली

जल रहा युद्ध की ज्वाला में
इस सृष्टि-सुन्दरी का सुहाग
बह रही विनाशों को आँधी
जल रहा क्रूरता का चिराग

मालूम बहुत पहले से था-अंगारों को इस दुनिया में-
होगा न उमंगों का कलरव, छवि का जयकार नहीं होगा
विज्ञान! तुम्हारी ज्वाला में
यदि यह संसार जलेगा ही
तो याद रखो-यह सर्वनाश-
तुमको भी कभी छलेगा ही

तुम स्वयम् मिटोगे मुट्ठी में-
नर की संस्कृति का भस्म लिये
धरती से होगी विदा गिरा-
अपनी वीणा अंकस्थ किये
भावों के मेघ नहीं होंगे, करुणा का ज्वार नहीं होगा
कवि होगा कहीं विलीन, सभ्यता का आधार नहीं होगा

-25.11.1948