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प्यार क्या इतना असुन्दर!
सह्य क्यों जग को नहीं है प्यार के स्वर
सृष्ठि में जो भावनाएँ अति सुकोमल
प्यार ही शृंखला उनका है समुज्ज्वल
ताकता है क्यों घृणा से जग उसे फिर!
प्यार क्या इतना असुन्दर!
दो हृदय मिल एक होना चाहते हैं
साथ हँसना, साथ रोना चाहते हैं
दफ़्न कर देता जगत क्यों उन्हें हँस कर!
प्यार क्या इतना असुन्दर!
आय का व्यवधान है तन की समस्या
प्रीत तो केवल सहज मन की समस्या
प्यार से क्या वासना की लौ प्रखरतर!
प्यार क्या इतना असुन्दर!
प्यार का गल-हार तोड़ा क्रूर जग ने
फेंक डाला मोतियों को दूर जग ने
मैं समझ पाया न क्यों जग क्रूर-निष्ठुर!
प्यार क्या इतना असुन्दर!
-11.11.1973