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निर्झरणी के एक किनारे ‘श्यामपुरी’ बसती थी
जिसके कन-कन में सुख-सौन्दर्यों की छवि हँसती थी
हरियाली थी प्रकृति-नटी को निज उर से चिपकाये
विचर रहे थे पंछी अपने चित्रित पर फैलाये
बादल-दल से भरी सरस थी नील गगन की प्याली
जिससे कभी छलकता था तम, कभी स्निग्ध उजियाली
उसी गगन के नीचे ‘आशा’ सुकुमारी रहती थी
जिसे ‘पुरी’ की जनता ‘अलका की रानी’ कहती थी
उसका हृदय मधुर, मंजुल, प्रफुलित, प्रमुदित झलमल था
आशा-सर में खिला सदा ही रहता हृदय-कमल था
व्यापा नहीं कभी उसके जीवन में निर्मम दुख था
उसकी नयी जवानी में बस, केवल सुख ही सुख था
था गर्वोन्नत भाल और आकर्षक गठा बदन था
पंच तत्त्व से बना हुआ था कुंदन जैसा तन था
वाणी में माधुर्य्य भरा था और अजब आकर्षण
बेसुध किसे नहीं करती थी उसकी बाँकी चितवन
लम्बे, काले बाल नाग-से छूते थे छाती को
मानो चन्दन-तरु में लिपटे ले अपनी थाती को
सुख-मयंक पर सदा शान्ति का राज्य रहा करता था
उसका वह सौन्दर्य सभी के उर में घर करता था
उठती थीं नित नवल तरंगें उसके कोमल दिल में
उठती थीं नित विमल उमंगे उसके अन्तस्तल में
उमड़ रहा था यौवन उसका सरिता-सा पल-पल में
ओत-प्रोत था मानस उसका स्नेह-सुधा-परिमल में
चन्द्रदेव जब उग आते थे निर्मल नील गगन में
फैलाते जब शुभ्र चाँदनी कुटिया और सदन में
निरख माधुरी छटा सुन्दरी बेसुध-सी हो जाती
उसी छटा में मस्त-मगन-मन पुलकित हो खो जाती
तंद्रा तज स्वर्णिम वेला में ही वह उठ जाती थी
छवि यह मनो-मुग्धकर उसके मन को अति भाति थी
बुलबुल-कुल की चहक और कोकिल का मोहक गायन
सुध-बुध भूल सुना करती थी ध्वनि मादक, मनभावन
फूलांे की भीनी-भीनी ले गंध सरस, मस्तानी
देखा करती मंत्र-मुग्ध-सी भौंरों की मनमानी
पुलक पंछियों की किलोल करती टोली दीवानी
निरखा करती मस्त-मगन होकर सरिता का पानी
कोई नहीं स्वजन था उसका इस माया के जग में
एकाकिनि वह बढ़ती जाती थी निज जीवन-मग में
नन्हें फूल, पेड़-पौधे औ’ वल्लरियाँ मदमातीं
कलियाँ, हरी दूब, मखमल-सी वसुंधरा की छाती
हरसिँगार, चम्पा, जूही, बेली के केलि-भवन थे
नवगुलाब, कचनार, केतकी बस ये ही जीवन थे
उसका प्यार-दुलार इसी सुन्दरता में सीमित था
बीत रहे फूलों के जग में उसके जीवन-क्षण थे
जब धूमिल रवि थक अस्ताचल को जाया करता था
लाल प्रकाश मुकुल-मणियों पर जब छाया करता था
उषा-सुन्दरी जब रवि के सँग इठलाया करती थी
साँझ-सुबह तरु-तले बैठ वह तब गाया करती थी
जब वह अपनी मनहर लय से मस्ती में गाती थी
निकट पंछियों की टोली आ बेसुध मँडराती थी
मृग खोये-से आकर उसके निकट उसाँसे भरते
उसके हर स्वर से रस-निर्झर सुधा-स्रोत से झरते
खाती थी फल-फूल और पीती थी सर का पानी
उसने कीमत विश्व-प्रेम की ठीक-ठीक पहचानी
कभी-कभी ‘वनमाली’ भी आता था ‘श्यामपुरी’ में
अब तक उनके निर्मल जीवन की थी यही कहानी