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स्वर्ण-थाल था फिसल रहा प्राची से धीरे-धीरे
हरित धरातल पर उसके कुछ बिखर चुके थे हीरे
बहता था मादक मलयानिल वन-कुंजों को चीरे
टहल रहा था बेसुध ‘वनमाली’ तटनी के तीरे
गर्मी के दिन थे-सूरज का ताप बढ़ा जाता था
पर विचार में मग्न न ‘वनमाली’ कुछ अकुलाता था
उसके शशिमुख पर मनहर, मनहर आभा खेल रही थी
रवि की तप्त रश्मियों में वह मोद मधुर पाता था
पर होने जब लगी उग्रतर गर्मी धीरे-धीरे
अम्बर से जगती-तल पर जब लगे बरसने खीरे
अंगारों में परिणत हो जब लगी चमकने रेती
और सुलगने लगी सुन्दरी सुषमा-श्री की खेती
पंछी-दल आकुल होकर जब लगा ढूँढ़ने छाया
लगी धधकने धरती मा की धूल-धूसरित काया
फैल चुकी जब पूर्ण रूप से रवि की निर्मम माया
छाया ने जब हार मान रवि-सम्मुख शीश झुकाया
देख चिलकती धूप मुग्ध तब ‘वनमाली’ अकुलाया
हुआ सजग, देखा-दुपहरिया का क्षण आ नियराया
चिन्तित-मन तब पाँव बढ़ाये वन के भीतर आया
वन्य अप्सराओं ने स्वागत में छवि-शीश झुकाया
झुकी चरण-चुंबन को सुरभित कलियाँ और टहनियाँ
हरी-भरी शाखाएँ सुन्दर, कोमल कुसुमावलियाँ
पंछी पुलकित लगे चहकने स्वर्ग सदृश नीड़ों में
करने लगी लिपट पैरों से हरी घास रँगरलियाँ
किन्तु, आज जाने क्यों अति उद्वेलित उसका मन था
मुरझाया-सा, शिथिल, सलोना, कोमल-कंचन तन था
आँखों में थी भरी विषमता, अधरों पर श्याम लता
रोम-रोम में रमी हुई थी अद्भुत-सी विह्वलता
पगडंडी पकड़ी पुर की, पथ निज निवास का छोड़ा
क्या जाने क्यों आज इस समय मुँह जंगल से मोड़ा
चिन्ता तज दी तप्त धरा की, विषम वह्नि-वर्षण की
नंगे पाँव, बदन अधनंगा, सुधि न रही तन-मन की
उगल रही थीं आग प्रतिक्षण तप्त किरण सर्पिणियाँ
लूहों में झुलसी पड़ती थी फल-फूलों की दुनिया
किन्तु जा रहा था असमय तज प्रकृति-नटी का डेरा
नत मस्तक, पागल-सा ‘श्यामपुरी’ की ओर ‘चितेरा’