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"मधुर-मिलन / विमल राजस्थानी" के अवतरणों में अंतर

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12:40, 25 फ़रवरी 2016 के समय का अवतरण

मिली शान्ति, जब मिटी शिथिलता, उसने आँखें खोलीं
शनैः-शनैः उस संन्यासी की जर्जर काया डोली
आहिस्ते से खोलीं उसने अपनी कोमल पलकें
युग्म-करों से ली बटोर फिर बिखरी श्यामल अलकें

हुआ अचम्भित जान किसी को बैठा निज सिरहाने
पर मुश्किल थी कैसे उठ उस प्रतिभा को पहचाने
उठा, किन्तु फिर लुढ़क गया उस देवी की गोदी में
ढुलक गए गोरे गालों पर मोती के कुछ दाने

ग्राम्या को कुछ मिली सांत्वना समझ-हुई चेतनता
किसी तरह आकुल अन्तर में आ पायी शीतलता
स्थिरता से उसने धीरे-धीरे उसे बिठाया
धोया जल ले पाणि-पल्लवों से शशि-मुख कुम्हलाया

हुआ देख उस रूप-राशि को स्तंभित ‘वनमाली’
स्नेह-सलिल में लगी डुबकियाँ खाने नयन-पियाली
‘वनमाली’ को देख निरखते ग्राम्या कुछ शरमायी
एक बार बस, मिला आँख से आँखें, तुरत झुका ली

किन्तु हुआ जब ध्यान समय का, उसने लज्जा त्यागी
बोली, ‘चलिए, बरस रही है यहाँ गगन से आगी (भोजपुरी = आग)
चल कर कुछ विश्राम कीजिए आप थके-माँदे हैं’
सुन यह कोमल वचन-माधुरी, मुस्काया वैरागी

बोला- ‘क्या है नाम? कहाँ रहती हो? कुछ बोलो तो
मुँदे अधर-पल्लव शुभगे! पल भर को फिर खोलो तो
सुन्दरि! इस जलती दुपहरिया में तुम कौन शची-सी
उमड़ी हो मधु-रस बरसाने बदली सुधा-सिँची-सी’

शर्माती-सी बोली- ”पुरजन मुझको कहते ‘आशा’“
बोल उठा ‘वह’- ‘बस कुछ सुनने की न और अभिलाषा“
”आशा ही तो अखिल-निखिल जग का आधार सलोनी!“
”आशा ही के बल पर पलता है संसार सलोनी!“

-”एकाकिनी हो?“ सुनकर ‘हाँ’, बोला हँसकर ‘वनमाली’
-”आज तुम्हें पा ‘वन’ ने जग की सारी निधियाँ पा लीं
मैं एकाकी, तुम एकाकिनी, आओ, चलो, चलें हम
एक दीप की दो बाती बन जग के लिए चलें हम“

उठा, किन्तु उठ सका न जब, ‘आशा’ ने उसे सँभाला
अवलम्बन के लिए फूल-सा हाथ कमर में डाला
एक हाथ में कलश, दूसरे हाथ में घायल ‘वनमाली’
धीरे-धीरे चली कुटी को सोलह फूलों वाली