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"आठमॅ सर्ग / उर्ध्वरेता / सुमन सूरो" के अवतरणों में अंतर

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10:28, 1 मार्च 2016 का अवतरण

हस्तिनापुरी के राजमहल में गिलफिल मचलै भारी,
स्वागत सतकारॅ में जुमलै लोग बाप-बेटा के।
देश-देश के राजा ऐलै साधारण जनता भी,
उमड़ी पड़लै ढौ-पर-ढौ खुशियाली के सागर में।

महाधनुर्धर देवव्रत के कथा कहीं चर्चा में,
कहीं शान्तनू के प्रताप के, गंगा से शादी के।
भरतवंश के पुण्य कहीं, तेॅ सत्य-धरम के महिमा;
कहीं भाग्य हस्तिनापुरी के लोगें ने मानै छै।

कहीं-कहीं रूपॅ के चर्चा सुन्दर राजकुमर के,
कहीं बीरता के बखान गुण-शीलॅ पर चढ़लॅ छै।
जत्तेॅ मूँ तत्तेॅ बातॅ के लेखा करना मुश्किल;
मानै जानकार बेसी सबने अपना-अपना केॅ।

आगूॅ-आगूँ राजकुमर ऐलै राजा के साथें,
झलमल दीया के आगू में दीया के टेम्हॅ रं।
शंखध्वनि के बीच, स्वस्तिवाचन के परम्परा सें,
सिक्त करलकै नदी-समुन्दर, जल लें मंत्र पढ़ी केॅ।

कुलरीती अनुसार करी केॅ विधि पूर्वक सें पूजा;
तृप्त करलकै राजा ने दानॅ सें सब ब्राह्मण केॅ।
घोषित होलै देवव्रत केॅ युवराजॅ के पदवी;
उदयाचल पर चरण धरलकै मानॅ जे सूरज ने।

बढ़लै डेगें-डेग प्रजा के रक्षा में, सेवा में,
किरणॅ के रेसा-रेसा पसरी गेलै धरती पर।
बचलॅ-खुचलॅ सब अन्हार ढुकलै कोनों खोहॅ में,
देवव्रत बनलै जन-गण के नेहॅ के अधिकारी।

पिता प्रसन्न पराक्रम देखी न्याय-नीति-अनुरागी,
बेटा केॅ प्रेमॅ के रिमझिम वुन्दॅ सें सरसावै।
उद्गारॅ सें हाथ बुलाबै माथा पर, पीठी पर;
मातृ-दुलारॅ के अभाव नै अखड़ॅे तनिक हृदय में।

जतन-जतन सें खुश राखै लेॅ सभे वस्तु मनचाहा,
राजा ने उपलब्ध कराबै शिशु समझी मोदॅ सें
हल्का-फुल्का भार धरै कखनू-कखनू कन्हा पर;
राज-काज के, वय किशोर के चंचल मन बान्है लेॅ।

घुमी-फिरी के राजमहल में राजा जबेॅ पधारै,
साँझॅ के साथें उभरै मूँ पर थकान के रेखा।
चानॅ रं मुखड़ा हँसलॅ युवराजॅ के देखी केॅ;
खिली उठै दिन के कुम्हलैलॅ मुनलॅ कुमुद कली रं।

तरह-तरह के बात हुवै राजा स रात अधिक तक,
तीक्ष्ण बुद्धि बालक के देखी राजा हरखित-पुलकित।
लेकिन भाव मनॅ के दाबो मन के भीतर राखै;
चर्चा करै मनुख जीवन के, बेटा केॅ उसकाबै-

‘चलै अनबरत चिति सत्ता के द्वन्द सनातन जग में,
एक सफलता मिलै कि आन चुनौती खड़ा हियाबै।
फेरू सें संघर्ष आदमी करै सफलता लेली;
आदिकाल सें ई क्रम चल्लॅ आबै छै धरती पर।

जे बौलै से हुवै कहाँ? जे चाहै से नै पाबै,
मनुख अपूर्ण यही लेॅ सतत लड़ै छै नियति-खिलाफें।
बोलै छै ज्ञानी-संतोख परम सुख सें जीवन में;
शायद यही बासतें समझौता घटनॅ सें साधे।

तमकी केॅ युवराजें राखै दृढ़ बिचार राजा लग-
”पैने छै अधिकार आदमीं द्वन्दात्मक सत्ता सें।
समझौता करना प्रतिकूल परिस्थिति सें वाजिब नै;
मानी लेना हार नियति सें ही छेकै कायरता।

खोज परम सुख के अनादि सें अभिलाषा जीवन के,
कर्म-बिमुख संतोखॅ में लेकिन ऊ कहाँ बसै छै?
ओकरॅ झलक मिलै बीरॅ केॅ विजयश्री में झिलमिल-
जबेॅ पछाड़ी अन्यायी केॅ न्याय-धजा फहराबै।

या, उपकारी केॅ असहाय जनॅ के उपकारॅ में,
तन्मय ऊ जखनी सुख पहुचाबै में कोय दुखी केॅ।
या, त्यागी केॅ दोसरा खातिर जें स्वारथ केॅ त्याग;
मानो केॅ सुखभाग वही में, डिड़ बिचार राखी केॅ।

जीवन बढ़ै कर्म के रथ पर ही अदम्य साहस सें,
अकर्मण्य ने लीख कहाँ गढ़ने छै यै धरती पर?
केवल वहेॅ बीर लोकॅ में पूजा के अधिकारी;
अर्जित करै सुजस जॅ नैतिकता के राह गढ़ी केॅ।

यै लेली संकल्प आग के वरण करै छै प्राणी;
जे विराट खटबैया रूपें सबके भीतर बसलॅ।
परीपूर्णता के घोड़ दै छै बें सबल मनुख केॅ,
मनवाँछित कल्याण तरफ यात्रा पर जाबै लेलो।“

आरेा कत्तेॅ बात चलै हरदिन एकान्त छनॅ में,
दोस्त जुगाँ बेटा सें बापें चर्चा मंे सुख मानै।
राज छेत्र के यात्रा सें लौटै जखनी भी राजा;
युवराजें हँसलॅ चेहरा सें रोज करै अगवानी।

बीती गेलै चार बरस के काल खण्ड छोटॅ रं,
एक दोसरा के भावॅ के आलिंगन गढ़ियै।
बापॅ के संतोष-नेह बेटा के भक्ति समादर;
जेना कुछ लत्तड़ आबी केॅ लपटलै आपस में।

युवराजें ने चरण धरलकै यौवन के देहरी पर,
गंध चढ़ै मंजर-मकूल के, मन पर फूल-कली के।
अच्छा लागै देर-देर तक देखै में नवतुरिया;
सुन्दरता के प्रति आकर्षण सुख के साधन बनलै।

कूक सुनी कोयल के, टहकै दिल के कोनो कोना,
एक सुखद कल्पना बराबर दूर-दूर भटकाबै।
लेकिन नीति नियम-रस्ता पर बढ़लॅ जीबन के क्रम;
जेना चलै मस्त हाथी अंकुश के अनुशासन में।