भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"गुलबिया / प्रशांत विप्लवी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रशांत विप्लवी |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

01:19, 11 जून 2016 के समय का अवतरण

1)

बच्चा गिरा आई
चमैन के पास, लथ-पथ खून से सनी
दूध और गुलाब-सी
टुक-टुक बेटी
सामाजिक बाप अनिर्णीत है उसका
किसी अन्हरिया में दबोची गई उसकी माँ
और जबरन डाला कईयों ने
असंख्य शुक्राणु-
उनमे से एक- गुलबिया
गुलबिया- उसी दुआरी पर पली
जहाँ सल्फास की गोली उसकी माँ ने गटकी थी
अल्हड़... मटकती है मोहल्ले-मोहल्ले
बिना तेल के सोन जैसे बाल
भूरी आँखें-
हजारों नज़रों से चुराई गई-हँसी
आँखें भोलेपन से डब-डब
अन्हरिया के पाप से जनी
एक स्वर्ण परी
टुअर-बेबाक
माँ-को छिनाल और बाप को हरामी मानती है
आज उजालो में आँखों से जल रही
किसी अमावस में ये भी चढ़ेगी

2)

गुलबिया
ढूंढ रही अपना आकाश
जहाँ मुट्ठी भर हवा बची है
और बची है चीलों से भागती एक गौरैय्या
घिन आती है चीलों से
और मुस्कान रेंग जाती फटे होठों पर
पत्थर के भगवान से
मिन्नत करती है गाँव के जल जाने का
फिर पूछती है अपने माँ का गुनाह
गरीबी थी या उसका दहकता यौवन
चील मंडराने लगे हैं आस-पास
गौरैया भागेगी नहीं डर से
डट गई... आ खसोट मुझे हरामखोर
तेरे बाप के शुक्राणु की जनी हूँ मैं
चील के पंखों में लगने लगी आग
आकाश में गूंज उठी उसकी चीत्कार
गौरैया खड़ी देखने लगी उनका जलना
और हारे हुए चील का मरना
गुलबिया, लौट आई है पुरानी देहरी
बच्चे मिला रहे थे अपना शक्ल-गुलबिया से
दुर्गम कानून में
गुलबिया इससे ज्यादा हक नहीं पा सकी
“माँ छिनाल नहीं थी” सिद्ध होना
बड़ी जीत थी
बाप वाकई था हरामी
कानूनन उसे हराम के पैसों पर पलना है
और जलाना है चील के पंख