"अजीब सी लड़कियाँ / मुकेश कुमार सिन्हा" के अवतरणों में अंतर
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कुछ लडकियाँ आती है दुनियाँ में
एलियंस की तरह
अजीब से भाग्य के सहारे
कहें ‘दुर्भाग्य’ तो कैसा रहेगा?
नहीं सुनाई देती उन्हें अम्मा के मीठी लोरियों की आवाज़
नहीं मिलता उन्हें माँ के पल्लू तले
अम्मा के छाती की अमृतधारा का साथ
फिर भी बढती जाती है वो!!
बेशक बड़े होने की रफ़्तार होती है तेज
खेलने के बदले मजूरी करते करते
नहीं जान पाती वो....
बचपन व बचपन की अठखेलियाँ
नहीं खेलती वो छोटे से चूल्हे पर
झूठ-मूठ के खाना बनाने का खेल
नहीं होता उनके बक्से में गुड्डा–गुडिया
क्योंकि चूल्हे पर सिसकारी मारती कराह के साथ
बचपन से ही वो जलाती है अपने हाथ
समय से क्या वो, समय से पहले ही
आ जाता है मासिक धर्म उन्हें
फटे चिथड़ों में चमकने लगते हैं
उनके दैहिक बदलाव/उभार
कब एकाएक चुभने लगती है बहुत सी नजरें
ये तक पता नहीं होता उन्हें!!
अंततः इसी परिवर्तन के क्रम में
कब वो टूट चुकी होती है
और तो और टूटना महसूस तक नहीं कर पाती
कुछ भी पता नहीं होता उन्हें
कब ये अजीब सी लड़कियां
बन जाती है दुनिया की नजरों में
अजीब सी ‘महिलाएं’, ये तक पता नहीं चलता!!
काश हर लड़की जन्म के बाद हो सिर्फ
‘एक लड़की’ एक इंसान
“अजीब सी लड़की” तो कत्तई नहीं
पर क्या ये संभव है, इस दुनिया में!!