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"एकदम ठीक / वीरू सोनकर" के अवतरणों में अंतर
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कॉलेज के नाम पर
खुद के आवारापन से,
घर के उबाऊ रोजमर्रा के कामो से
और डींगबाज दोस्तों से,
ताखे पर आ बैठती चिड़चिड़ी गौरैयाँ के
टोह लेते सवालो से
मैं फरार हुआ,
और किसी पार्क के कोने में थोड़ा घबराया मिला
खुद को ढूंढता मिला!
मैं एग्जाम में
पेन की रिफिल से गायब हुआ
तो पन्नों पर मुँह बाये फैली
किसी कहानी सा मिला
उसका शीर्षक न ढूंढ पाने की कुंठा में मिला!
और प्रेम से भागा,
तो कविता में आये किसी नए बिंब सा मिला
उन पहेलियों में
अपना चेहरा छुपाते मिला!
मैं भागा,
शताब्दियों/विभिन्न कालक्रमों में
मनुष्य में हुए विकासक्रम से सबकुछ समझ जाने के भ्रम से,
तो मुझे मनुष्य से मनुष्य तक आने की जद्दोजहद में
एक और मनुष्य मिला
फिर मैं खुद को एकदम ठीक मिला!