"समय का ताप / अर्चना कुमारी" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अर्चना कुमारी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
10:10, 16 जून 2016 के समय का अवतरण
चलो कहीं और चलते हैं
हर यात्रा बोलती है
जरा रुककर
पथराए घाटों की छाती पर
कितनी पायलें चुभी हुई
चलते-फिरते कदमों के नीचे
कुछ निशानियाँ दबी हुई
उस पार से आती हर्फों के चेहरे
टकटकी बाँध देखना
और सोचना उसके रंग के बारे में
बन्द आँखें लौट आती हैं
करीब अपने
नहीं मालूम कितना हाथ है दिल का
दिमाग की साजिश में
पहेलियाँ अबूझ नहीं होती
कुछ पल शंकालु होते हैं
तभी सोचती हूँ मैं
वक्त षडयंत्र का पर्यायवाची तो नहीं
सुविधाओं के सुरक्षित दायरे में
कहाँ अनुमान लग पाता है सुदूर असुविधाओं का
किंचित संदेहास्पद हुए जाते हैं सन्दर्भ
व्याख्या प्रमाणित करे भी कौन
कोलाहल के उत्सवी नाद में
मौन का सौम्य निनाद
घाट के तपते पाषाणों की व्यथा-कथा
जल के कलरव की उपमा वृथा
उर्वशी के हिय में उगा जो सूर्य है
अपने समय का ताप है॥