"शत शृंग / माद्री / तेजनारायण कुशवाहा" के अवतरणों में अंतर
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खैने-पीने कुन्ती माद्री दोन्हू रानी संगें
नागशत गिरि ऐलै पांडु पांव नंगें
फनु चली ऐलै संग दखिन पवन
कुबेर के अनुपम चैत्ररथ वन
छोटकी रानी के गोड़ लागलै पिराय
चैत्ररथ वनोॅ में कुछु दिना जिराय
लांघी कालकूट आ हिमालय पहार
गंधमादन ऐलै जहां से आर-पार
धरती-सरंग लौके तेकरो ऊपर
अंतरिक्ष नीहारिका पुंज-पुंज लर
गंधमादन सें आगू इन्द्रद्युम्न सर
वोहो छोड़ि ऐलै हंसकूट गिरिवर
जुमलै शत शृंग आगू थोड़े उत्तर
छुटले दूर ढेरे दूर हस्तिनापुर
तपोभूमि सिद्धभूमि परम सुरभ्य
मामूली मरद-औरत ले अभिगम्य
शतशृंग के ढाल-ढलान हेरि मन
भरलै जंचलै ठीक तप ले विजन
पांडु पिन्हने छालोॅ के बनलोॅ वसन
बितावै लागलै वानप्रस्थीरोॅ जीवन
दोन्हू बेरा नाही संध्या अग्निहोत्र करै
सभ्भे-टा वेद विहित आचरण धरै
सरद-गरम सहै आंधी या तूफान
मृगचर्म शयन सादा खान-पियान
कन्द मूल फूल फर जल के चढ़ावै
देव-पितर सिनी के सुख पहुंचावै
महाराजा पांडु के तनि-टा न´् गुमान
आपनोॅ प्रशंसा न´् पावै ले कोय मान
कोय प्राणी केकर्हौ न´् करै अपमान
विकार रहित देखै सभ्भे के समान
सिद्ध या चरण हुवेॅ या कोय दिगर
ऋषि-मुनि सभ्भे करै पांडु के आदर
कोय ऋषि मित्र मानै कोय मानै भाय
कोय ऋषि बाप होलै ऋषि बसै माय
कुन्ती-माद्री दोन्हू तपस्विनी पांडुतपी
शतशृंग प्रदेश के संग गेलै छपी
ऋषि-मुनि केरोॅ दर्शन में सुख मानै
वनवासियो लोगोॅ के खूभे सनमानै
पनपे नित माद्री के मानसी विचार
पिया के जिनगी ले काबू में राखै मार
मौसम रचि-रचि कत्तोनी धनु ताने
एको न´् तीर लगै जौं मारे पंचवाने
कंद-मूल-फल लै आने कभूं मंगाय
चिरैं चिरगुन केॅ दै तीन्हू गोटा खाय
सांय के गोसांय नाकी नित पूजा करै
अमर सुहाग लेली नित मांग भरै
जेठी रानी कुंती के पूजा करै दै मान
सूतै तबेॅ सूतै जागै नहिने बिहान
संयम मंे इन्द्रि राखि काम सुख तजि
ऋषि-मुनियो के भाव दै प्रभु के भजि
लहंगा-पटोर आभूषण विना रानी
दिप दिप दिपै रहै पावी तप पानी
तापस राजा संगे रानियो तप करै
मन कर्म वचन से नाम जप करै
तप रोॅ नित साधन निक्कोॅ ध्यानयोग
दूर करै शाप मृत्यु मय के संयोग
तापसी भावोॅ से जीव जन्तु के खिलाय
पांडु के पुंगाय रानी शाक फल खाय
समय ढेरे लेलकै तप-अनुष्ठान
आबेॅ राजा पांडु लागै ब्रह्मर्षि समान
तापस पांडु ले जाड़ा-गरमी समान
साधु-असाधु समान मान-अपमान
तप झरै दप-दप दमकै लिलार
गर्व सें उमगलै शत शंृग पहार
एक दिन महाराज कुन्ती सें बोलकै
संकोच तजिये दिल के बात खोलकै
‘मृग के शाप-कथा तोहें रानी जानै छोॅ
अशक्त छी संतान दै में तोहें मानै छोॅ
कहै छै शास्त्रें स्वर्ग न´् पावै निस्संतान
निस्संतान के हेरबोॅ लोगो पाप माने
यज्ञ/येाग जप तप करै निस्संताने
अशुभ अशुद्ध सब कर्म लोक माने
मिलतै न´् गति मिलतै न´् स्वर्गलोक
निस्संतान मने लागलोॅ रहै छै शोक
यहे से हे रानी कहों वंश के बढ़ावोॅ
उत्तम लोक मिलै ई पुण्य फल पावोॅ
दोसरोॅ पुरुष से गर्भ धारण करोॅ
नरक जैबोॅ से तोहें उबरोॅ उबारोॅ
‘राजा हो की बात! बसै हमें तोहें स्वामी
ई न´् काम अधर्म आ अधोगामी
कुरुराज कहोॅ हेनोॅ बात न´् निचास
तोरा छोड़ि केकर्हौं सें होथौं न´् संवास
बेटा लेली हमरे संगे संवास होथौं
सच कहों हमरे गोदी में नुनु रोथौं।’
‘देवि शक्तिहीन करों संतान ले तोरा
पर पुरुष संगे संगम ले निहोरा
संत कहै छै मरदें जे कहै बसै के
अनुकूल-प्रतिकूल बात जे समै के
मानबोॅ करै जनानी/यहो छै वचन
संतान-जनन शक्तिहीन जे साजनन
बेटा के चाह संजोने कहै मौगी कन
पर पुरुष से करै लेली उत्पादन
संतान के/निस्सन्देह करै सम्पादन
मानी जा मानी जा झुट्ठोॅ हुबेॅ न´् भाखन।’
यैं पर बोलली कलें कुन्ती महारानी
सीमा के भीतरें वचपन के कहानी
‘आपनोॅ खुशी लेली नारी से कहो सच्चा
पतिये निहोरा करै/नारी ले न´् अच्छा
चाहियोॅ नारी के पाहुन के खुश राखै
औरत धरम की, लोक रीतियो भाखै
कुछु सयानी छेलां नैह्रा में बसै रहौं
सुनोॅ सैयां तखनी रोॅ बात एक कहौं
ऐलों ऋषि दुर्वासा सुभाव के कठोर
संतुष्ट खूभे होलों सेवा भाव से मोर
मंत्र देलकॉे उपदेशो रीति बताय
जेकरा नेतभीं सेहे पहुंचतो आय
करभीं जौनी-जौनी देवोॅ के आवाहन
वशीकरण मंत्र सें ऐतो तोरा कन
हे राजकुंवरि, होतौ हौ तोरा अधीन
वहेॅ देव दया सें बेटा होतौ प्रवीन
मंत्र-उपयोग केरोॅ यहेॅ छै समय
शब्द महर्षि के सच होतै हे निश्चय
साध पूरै लेली पिया आज्ञा सिर धारौं
कोय देवता के हम्में न्योता दिए पारौं
होतों संतान हीन जनित दुख दूर
मन के कुंठा मिटतों मिलतों सबूर
अंचरा के आस पूरतो भरतों गोद
खिली उठतों ऐंगन नाचतों आमोद
तोरोॅ मन पूरै छी ई काम ले तैयार
महाराज पैभेॅ शत शृंग-उपहार
कहोॅ कौनी देवके नेवतियै हे पिया
लोक-परलोक के जैमें जुड़तों जिया!’
‘भूलै न´् पारौं हे रानी तोरोॅ एहसान
जे करल्होॅ हमरा पर कृपा महान
महामुनि दुर्वासा के करै छी प्रणाम
कुरूकुल में सुन्दरि रहथौं सुनाम!
सभ्भे लोक में धर्मोत्मा धर्म के बुलाबोॅ
सत्य शिव सुन्दर उत्तम फल पाबोॅ।’
आज्ञा पावी कुन्ती घी के दियरी दिखैने
नैवेद्य फूल पान सुपारी के चढ़ैने
कुन्ती-एं धर्म के विधि सें पूजा करकै
ऋषि-मंत्र जपतें स्थिर ध्यान धरकै।
कुन्ती आवाहित मंत्र-बल से खिचैलोॅ
सूर्य के समान धर्म विमान से ऐलोॅ
मंत्र मुग्ध धर्म बड़ा खुश दिखै रहै।
-‘निकललोॅ तोहूं बड़ी चतुर सयानी
हमें की दियो तोरा बोल्हीं गे कुन्ती रानी!’
‘बेटा देहो।’
तबे हो धर्म के संगम सें
सुन्दर सपूत पैलकै पृथा धर्म सें
यहेॅ रङ कुन्ती पांडु मन मंत्र गुन
जनकै वायु सें भीम इन्द्र सें अर्जुन।
तीन्हू के जनम घ्ज्ञरी बोललै गगन
आगू कैन्हों होतै नुनु सब भै मगन
‘सच्चा सदाचारी यशवान बलवान्
युधिष्ठिर के लोकें करतै सनमान्
बलवान आरनी में बड़ा बलवान्
शक्ति पुंज होतै भीम प्राण शक्तिमान्
तेसरोॅ अर्जुन धनुर्धर कांतिमान्
इन्द्र नाकी अजेय कर्मठ नीतिवान्
सुरुज के तेज लैके करतै प्रकाश
अलौकिक काम करतै वैरी विनाश’
एक दिना माद्री पुत्र-कामना दिल लै
सूनोॅ में संकोच मन पांडु सँ मिललै
‘आर्यपुत्र, दीदी-एं तीन पुत्र जनकै
हुन्ने दीदी गंधारी-एं बेटा सौ बुनकै
यैं सभ्भे खबर सें मिललै बड़ा सुख
पटरानी पद छोड़लां न´् कोय दुख
हों, जो कोय दुख ते दुख एक बात के
लोकें कहतै बांझिन दिन के रात के
तोहें कहभो दीदी कहतों इतिहास
ससुरो नैह्रा मद्र देश के उपहास।
स्वामी मोर काटी खैतों न´् कारी नागिन
न´् न´् करतों बोलतों न´् होबोॅ बाझिन
स्वामी मोर बाझिन के न´् खैतों बाघिन
से करतों न´् न´् हमें की होबोॅ बांझिन
स्वामी मोर जौं कहभों फाटोॅ हे धरती
से बोलतों कैन्हैं होबोॅ उसर परती?
संग-संग छी तब्बो छी संग सुख बिना
मांदर बजतें निकलै न´् ना-धि-धिना
पिनया हे बालक बिनु कैन्हों-कैन्हों लागै
सूनोॅ-सूनोॅ गोदी ई बाल-बुतरू मांगै
हम्में की कहभों कुन्ती दीदी सें तो कहोॅ
हमरो ले से उपाय करी सुख लहोॅ।’
‘रानी, ऐन्हों बात तेॅ ऐलोॅ रहै मनोॅ में
ठीक छै कहभों मौका मिलतें छनोॅ में।’
आपनोॅ दुख-दरद कही माद्री गेलै
पांडु के मनोॅ में फनु एगो चिन्ता भेलै।
विचारोॅ में बहै रहै पांडु सांझी खुनी
कुन्ती ऐलै पूछकै-
‘रहलोॅ छोॅ की गुनी?’
‘माद्री के संतान-सुख सेॅ उपाय कर् हीं
देवता खुश करी ओकरो गोद भर्हीं।’
बोललै कुन्ती माद्री सें दोसरोॅ बिहानी
शुद्ध मने मंत्र-जाप भेद के बखानी
खुश भैकेॅ छायापुत्र अश्विनी कुमार
प्रकटलै पूछकै-
‘की कारने पुकार?’
‘हे देवता, बेटा बिनु गोद सूनोॅ लागै
गोद भरोॅ!’
कहलकै
-‘मोर भाग जागै।’
अश्विनी कुमार-माद्री सें भेलै संवास
समय पाबी हंसलै आश्रम-आवास
यमज संतान में नकुल रूपवान्
पहिलोॅ/दोसरोॅ सहदेव विद्यावान्
कैलकै दर्शन जग नुनु सुलगने
‘अश्विनो से बढ़ी’ -शब्द गुंजलै गगने
रूप में, गुण में, तेज, विद्याव्यसन में
स्वभाव शील में होतै लोक-दर्शन में।’
ऋषि-मुनि वन देवी देवता निवास
पशु-पंछी घास-पात उगलै उचास
आकाश सें देवे बरसैलकै कुसुम
गुंजलै सगठें वीणा तन-नन-तुम
वनवासिनें सोहर कंठ सजैलकै
मुनि कन्या आरनी कस्तूरी लुटैलकै
बुतरू के हेरि शत शृंग हुलसाय
उमगि-उमगि दैछै नुनु के बधाय
सुगनी-मैनी सोनचिरैयां ले बलैया
रूख डारी-डारी फुदकै लुखी बिलैया
निछावर जाय बच्चा के ऊपर माय
गदगद भैकेॅ दै देवता के दुहाय
प्राणनाथ पांडु, कुन्ती के गोड़ लागकै
मानदै सराहलकै माद्री के भाग के।