भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"चरका ढाकर / पतझड़ / श्रीउमेश" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीउमेश |अनुवादक= |संग्रह=पतझड़ /...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

03:09, 2 जुलाई 2016 के समय का अवतरण

हेभेॅ देखोॅ हमरा छाया तर ऐलोॅ चरका ठाकर।
भोला बाबा के नन्दी मानोॅ ऐलोॅ छेॅ गाछी तर॥
लागै छै गिरिराज आज दूधोॅ में खूब नहैलोॅ छै।
अचल हिमाचल सचल बनी केॅ बुल्लोॅ बुल्लोॅ ऐलोॅ छैं॥
हमरा फेंड़ोॅ में रगड़ी, गर्दन के खाज छोड़ाबै छै।
गलाँ-गलाँ ई मिली-मिी केॅ आपनों प्यार बढ़ाबैं छैं॥
केकरे नैं परबाह करी केॅ साहंसाह बिचरथैं छै।
हरियैलोॅ छै चास-घास जेकरा सानों सें चरथै छै॥
गैया के पीछू-पीछू ऊ मस्त बनी केॅ घूमै छै
कखनू ढकच छै, कखनू-कखनू गैया केॅ चूमै छै॥
गैया के वें मूत पिबी केॅ कखनू दाँत निकोसै छै।
पुत्पदन्त के ‘सिव-महिम्न अस्तब’ केॅ मानोॅ कोसै छै॥
जेना तारा बीच चनरगा करँङोॅ में सड़राबै छै।
गैया सब के बीच ढकरबाँ ओन्हें सान जमाबै छै॥
ढकरा छै बड़ी सुद्धोॅ, सिव-सकर रङ औढर-दानी।
केकरे नै करलेॅ छै अब तक, कोय तरह के नोकसानी॥
सब चरबाहां यै ढकरा सें आपनों मन बहलाबै छै।
नँङड़ी कभीं मोचारै छ कखनू गर्दन सहलाबै छै
यै गामों में करिया ब भन मखरू दूबे छेॅ बेजोड़।
माथोॅ हँड़िया, पेट नगाड़ा ठीक मंयूरोॅ रङ छै गोड़॥
गर्दन आकरोॅ घटी रङ छै, गुज्जी-गुज्जी दोनों आँख।
आगू-पीछू हाथ उड़ै छै, चिड़ियां के जेनां दू पाँख॥
हँसलोॅ छै ऊ आज तलक नै; रहलोॅ छै हरदम गुम-सुम।
बाल ब्रह्मचारी छै अपना कन गोकुलजी एक्के तुम॥
ढीठ बड़ा छै; काम करै छै बाछा-बिकरी के व्यापार।
आरु नैं मालूम चलावै छै केना आपनों संसार॥
यै गामों के लोगोॅ सें, ‘मखरू मामू’ कहलाबै छै।
आगूं नाथ नै पाछू पगहा, ढ़ोलक खूब बजाबै छै॥
लोगें महादेव छूबी केॅ, प्रन करलेॅ छै किरिया खाय।
”गाय कभी नैं बेचबै भैया, दुख पड़लौ पर हाथ कसाय॥“
वहां कसैया-टोली में, एकरा सें मचलै हाहाकार।
एक्को गाय मिलै छै नैं, चलतै केना केॅ ई व्यापार?
आखिर अबदुल्ला कसाय केॅ सूझी गेलै एक उपाय।
मखरु केॅ बुड़वक जानी केॅ अबदुल्लां लेलकै पटियाय॥
चौगूना दामों में मखरु गाय सिनी बेचेॅ लागलै।
मखरू के बैमानी सें, रोजे दू गाय कटेॅ लागलै॥
बेची केॅ दू गाय यहीं खखरू मामू ऐलोॅ छेलै।
दुपहरिया रौदी में आबी केॅ सुस्तैलोॅ छेलै॥