भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सिवरात / पतझड़ / श्रीउमेश" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीउमेश |अनुवादक= |संग्रह=पतझड़ /...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

03:14, 2 जुलाई 2016 के समय का अवतरण

धूप धाम सें फागुन में हर साल मनावै छै सिवरात।
याद पड़ी आवै छै सिवके भूत-प्रेत वाला बरियात॥
भाँग पिवी केॅ उछलै छै छौड़ा सब बनी-बनी केॅ भूत।
सिव महिमा गावै छै वें, दिखलाबै छै अपनोॅ करतूत॥
हमरै बगलोॅ में सिव-मदिर छै, देखै छी एकरोॅ सब ढंग।
सिवेराती के मेला में एकरा सें खूब जमै छै रंग।
पनरोॅ दिन तक मेला में यै ठाम रहै छै रेलम पेल।
ढोल बजै छै, माला बिकै छै, कत्ते-कत्ते होय छै खेल॥
तरह-तरह के चीज बिकैलेॅ, आवै छै कत्तेॅ दोकान।
गरम गुलगुला, चक्की, लडुआ खूब बिकै छै बीड़ी पान॥
कठ घोड़वा छै उड़न खटोला, नौटंकी जादूघर छै॥
नाटक के छै रंग-मंच, गजलोॅ छै कत्तेॅ सुन्दर छै?
मिट्टी के पुतरा-पुतरी, चखी, बलूंन उड़ाबै छै।
सीटी, गुड़िया, लेमनचूस छै, गेंद बिकै लेॅ आबै छै॥
केला, अमरुद, सकरकन्द के साथ बिकै छै कलमी बैर।
कुर्सी चौंकी, अलमारी, केबाड़ हरोॅ के लागलोॅ ढेर॥
डिग्गा दै छै ताक धिन-धिन, लगतै यहाँ अखाड़ा आज।
पहलवान के कुरती होतै, जुटतै सब के साज-समाज॥